श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 711

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्रद्धा के विभाग
अध्याय 17 : श्लोक-12


अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् ।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥12॥[1]

भावार्थ

लेकिन हे भरतश्रेष्ठ! जो यज्ञ किसी भौतिक लाभ के लिए या गर्ववश किया जाता है, उसे तुम राजसी जानो।

तात्पर्य
कभी-कभी स्वर्गलोक पहुँचने या किसी भौतिक लाभ के लिए यज्ञ तथा अनुष्ठान किये जाते हैं। ऐसे यज्ञ या अनुष्ठान राजसी माने जाते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अभिसन्धाय= इच्छा कर के; तु= लेकिन; फलम्= फल को; दम्भ= घमंड; अर्थम्= के लिए; अपि= भी; च= तथा; एव= निश्चय ही; यत्= जो; इज्यते= किया जाता है; भरत- श्रेष्ठ= हे भरतवंशियों में प्रमुख; तम्= उस; यज्ञम्= यज्ञ को; विद्धि= जानो; राजसम्= रजोगुणी।

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