श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 402

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-15


ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ते यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।[1]

भावार्थ

अन्य लोग जो ज्ञान के अनुशीलन द्वारा यज्ञ में लगे रहते हैं, वे भगवान की पूजा उनके अद्वय रूप में, विविध रूपों में तथा विश्व रूप में करते हैं।

तात्पर्य

यह श्लोक पिछले श्लोकों का सारांश है। भगवान अर्जुन को बताते हैं कि जो विशुद्ध कृष्णभावनामृत में लगे रहते हैं और कृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं जानते, वे महात्मा कहलाते हैं। तो भी कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो वास्तव में महात्मा पद को प्राप्त नहीं होते, किन्तु वे भी विभिन्न प्रकारों से कृष्ण की पूजा करते हैं। इनमें से कुछ का वर्णन आर्त, अर्थार्थी, ज्ञानी तथा जिज्ञासु के रूप में किया जा चुका है। किन्तु फिर भी कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो इनसे भी निम्न होते हैं। इन्हें तीन कोटियों में रखा जाता है–

  1. परमेश्वर तथा अपने को एक मानकर पूजा करने वाले,
  2. परमेश्वर के किसी मनोकल्पित रूप की पूजा करने वाले,
  3. भगवान के विश्व रूप की पूजा करने वाले। इनमें से सबसे अधम वे हैं जो अपने आपको अद्वैतवादी मानकर अपनी पूजा परमेश्वर के रूप में करते हैं और इन्हीं का प्राधान्य भी है। ऐसे लोग अपने को परमेश्वर मानते हैं और इस मानसिकता के कारण वे अपनी पूजा आप करते हैं। यह भी एक प्रकार की ईश पूजा है, क्योंकि के समझते हैं कि वे भौतिक पदार्थ न होकर आत्मा है। कम से कम, ऐसा भाव तो प्रधान रहता है। सामान्यतया निर्विशेष वादी इसी प्रकार से परमेश्वर को पूजते हैं। दूसरी कोटि के लोग वे हैं जो देवताओं के उपासक हैं, जो अपनी कल्पना से किसी भी स्वरूप को परमेश्वर का स्वरूप मान लेते हैं। तृतीय कोटि में वे लोग आते हैं जो इस ब्रह्माण्ड से परे कुछ भी नहीं सोच पाते। वे ब्रह्माण्ड को ही पर जीव या सत्ता मानकर उसकी उपासना करते हैं। यह ब्रह्माण्ड भी भगवान का एक स्वरूप है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ज्ञान-यज्ञेन–ज्ञान के अनुशीलन द्वारा; च–भी; अपि–निश्चय ही; अन्य–अन्य लोग; यजन्तः–यज्ञ करते हुए; माम्–मुझको; उपासते–पूजते हैं; एकत्वेन–एकान्त भव से ; पृथक्त्वेन–द्वैतभाव से; बहुधा–अनेक प्रकार से; विश्वतः मुखम्–विश्व रूप में।

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