श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 483

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-9


एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्।।[1]

भावार्थ

संजय ने कहा- हे राजा ! इस प्रकार कहकर महायोगेश्वर भगवान ने अर्जुन को अपना विश्वरूप दिखलाया।

अध्याय-11 : श्लोक-10-11

अनेकवक्त्रनयनमनेकाअद्भुतदर्शनम्।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्॥

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्॥[2]

भावार्थ

अर्जुन ने इस विश्वरूप में असंख्य मुख, असंख्य नेत्र तथा असंख्य आश्चर्यमय दृश्य देखे। यह रूप अनेक दैवी आभूषणों से अलंकृत था और अनेक दैवी हथियार उठाये हुए था। यह दैवी मालाएँ तथा वस्त्र धारण किये थे और उस पर अनेक दिव्य सुगन्धियाँ लगी थीं। सब कुछ आश्चर्यमय, तेजमय, असीम तथा सर्वत्र व्याप्त था।

तात्पर्य

इस दोनों श्लोकों में अनेक शब्द बारम्बार प्रयोग हुआ है, जो यह सूचित करता है की अर्जुन जिस रूप को देख रहा था उसके हाथों, मुखों, पाँवों कि कोई सीमा न थी। ये रूप सारे ब्रह्माण्ड में फैले हुए थे, किन्तु भगवत्कृपा से अर्जुन उन्हें एक स्थान पर बैठे-बैठे देख रहा था। यह सब कृष्ण की अचिन्त्य शक्ति के कारण था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सञ्जयःउवाच –संजय ने कहा; एवम् – इस प्रकार; उक्त्वा –कहकर; ततः – तत्पश्चात्; राजन् – हे राजा; महा-योग-ईश्वरः – परा शक्तिशाली योगी; हरिः – भगवान् कृष्ण ने; दर्शयाम् आस – दिखलाया; पार्थाय – अर्जुन को; परमम् – दिव्य; रूपम् ऐश्वरम् – विश्वरूप ।
  2. अनेक-कई; वक्त्र-मुख; नवनम्-नेत्र; अनेक-अनेक; अद्भुत-विचित्र; दर्शनम्-दिशी; अनेक-अनेक; दिव्य-दिव्य, अलौकिक; आभरणम्-आभूषण; दिव्य-दैवी; अनेक-विविध; उद्यत-उठाये हुए; आयुधम्-हथियार; दिव्य-दिव्य; माल्य-मालाएँ; अम्बर-वस्त्र; धरम्-धारण किये; दिव्य-दिव्य; गन्ध-सुगन्धियाँ; अनुलेपनम्-लगी थीं; सर्व-समस्त; आश्चर्य-मयम्-आश्चर्यपूर्ण; देवम्-प्रकाशयुक्त; अनन्तम्-असीम; विश्वतः-मुखम्-सर्वव्यापी।

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