श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 800

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-64


सर्वगुह्यतमं भूय: श्रृणु मे परमं वच: ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥64॥[1]

भावार्थ

चूँकि तुम मेरे अत्यन्त प्रिय मित्र हो, अतएव मैं तुम्हें अपना परम आदेश, जो सर्वाधिक गुह्यज्ञान है, बता रहा हूँ। इसे अपने हित के लिए सुनो।

तात्पर्य

अर्जुन को गुह्यज्ञान (ब्रह्मज्ञान) तथा गुह्यतरज्ञान (परमात्मा ज्ञान) प्रदान करने के बाद भगवान अब उसे गुह्य ज्ञान प्रदान करने जा रहे हैं- यह है भगवान के शरणागत होने का ज्ञान। नवें अध्याय के अन्त में उन्होंने कहा था- मन्मनाः- सदैव मेरा चिन्तन करो। उसी आदेश को यहाँ पर भगवद्गीता के सार के रूप में जोर देने के लिए दुहराया जा रहा है, यह सार सामान्यजन की समझ में नहीं आता। लेकिन जो कृष्ण को सचमुच अत्यन्त प्रिय है, कृष्ण का शुद्धभक्त है, वह समझ लेता है। सारे वैदिक साहित्य में यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आदेश है। इस प्रसंग में जो कुछ कृष्ण कहते हैं, वह ज्ञान का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंश है और इसका पालन न केवल अर्जुन द्वारा होना चाहिए, अपितु समस्त जीवों द्वारा होना चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सर्व-गुह्य-तमम्=सबों में अत्यन्त गुह्य; भूयः=पुनः; शृणु=सुनो; मे=मुझसे; परमम्=परम; वचः=आदेश; इष्टःअसि=तुम प्रिय हो; मे=मेरे, मुझको; दृढम्=अत्यन्त; इति=इस प्रकार; ततः=अतएव; वक्ष्यामि=कह रहा हूँ; ते=तुम्हारे; हितम्=लाभों के लिए।

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