श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 557

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-3


क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥3॥[1]

भावार्थ

हे भरतवंशी! तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि मैं भी समस्त शरीरों में ज्ञाता भी हूँ और इस शरीर तथा इसके ज्ञाता को जान लेना ज्ञान कहलाता है। ऐसा मेरा मत है।

तात्पर्य

शरीर, शरीर के ज्ञाता, आत्मा तथा परमात्मा विषयक व्याख्या के दौरान हमें तीन विभिन्न विषय मिलेंगे- भगवान्, जीव तथा पदार्थ। प्रत्येक कर्म-क्षेत्र में, प्रत्येक शरीर में दो आत्माएँ होती हैं- आत्मा तथा परमात्मा। चूँकि परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण का स्वांश है, अतः कृष्ण कहते हैं ‘‘मैं भी ज्ञाता हूँ, लेकिन मैं शरीर का व्यष्टि ज्ञाता नहीं हूँ। मैं परम ज्ञाता हूँ। मैं शरीर में परमात्मा के रूप में विद्यमान रहता हूँ।’’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. क्षेत्र=ज्ञम् का ज्ञाता; च=भी; अपि= निश्चय ही; माम्=मुझको; विद्धि=जानो; सर्व=समस्त; क्षेत्रेषु=शरीर रूपी क्षेत्रों में; भारत=हे भरत के पुत्र; क्षेत्र=कर्म=क्षेत्र (शरीर); क्षेत्र=ज्ञयोः= तथा क्षेत्र के ज्ञाता का; ज्ञानम्=ज्ञान; यत्=जो; तत्=वह; ज्ञानम्=ज्ञान; मतम्=अभिमत; मम=मेरा।

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