श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 556

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-1-2


कभी कभी हम सोचते हैं ‘‘मैं सुखी हूँ,’’ ‘‘मैं पुरुष हूँ,’’ ‘‘मैं स्त्री हूँ,’’ ‘‘मैं कुत्ता हूँ, ‘‘मैं बिल्ली हूँ।’’ ये ज्ञाता की शारीरिक उपाधियाँ हैं, लेकिन ज्ञाता शरीर से भिन्न होता है। भले ही हम तरह-तहर की वस्तुएँ प्रयोग में लाएँ- जैसे कपड़े इत्यादि, लेकिन हम जानते हैं कि हम शरीर से भिन्न हैं। मैं, तुम या अन्य कोई, जिसने शरीर धारण कर रखा है, क्षेत्रज्ञ कहलाता है- अर्थात् वह कर्म-क्षेत्र का ज्ञाता है और यह शरीर क्षेत्र है-साक्षात् कर्म-क्षेत्र है।

भगवद्गीता के प्रथम छह अध्यायों में शरीर के ज्ञाता (जीव), तथा जिस स्थिति में वह भगवान् को समझ सकता है, उसका वर्णन हुआ है। बीच के छह अध्यायों में भगवान तथा भगवान् के साथ जीवात्मा के सम्बन्ध एवं भक्ति के प्रसंग में परमात्मा का वर्णन है। इन अध्यायों में भगवान् की श्रेष्ठता तथा जीव की अधीन अवस्था की निश्चित रूप से परिभाषा की गई है। जीवात्माएँ सभी प्रकार से अधीन हैं, और अपनी विस्मृति के कारण वे कष्ट उठा रही हैं। जब पुण्य कर्मों द्वारा उन्हें प्रकाश मिलता है, तो वे विभिन्न परिस्थितियों में-यथा आर्त, धनहीन, जिज्ञासु तथा ज्ञान-पिपासु के रूप में भगवान् के पास पहुँचती हैं, इसका भी वर्णन हुआ है। अब तेरहवें अध्याय से आगे इसकी व्याख्या हुई है कि किस प्रकार जीवात्मा प्रकृति के सम्पर्क में आता है, और किस प्रकार कर्म, ज्ञान तथा भक्ति के विभिन्न साधनों के द्वारा परमेश्वर उसका उद्धार करते हैं। यद्यपि जीवात्मा भौतिक शरीर से सर्वथा भिन्न है, लेकिन वह किस तरह उससे सम्बद्ध हो जाता है, इसकी भी व्याख्या की गई है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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