श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 659

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

पुरुषोत्तम योग
अध्याय 15 : श्लोक-17


उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत: ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर: ॥17॥[1]

भावार्थ

इन दोनों के अतिरिक्त, एक परमपुरुष परमात्मा है, जो साक्षात अविनाशी भगवान है और जो तीनों लोकों के प्रवेश करके उनका पालन कर रहा है।

तात्पर्य

इस श्लोक का भाव कठोपनिषद्[2] तथा श्वेताश्वर उपनिषद् में[3] अत्यन्त सुन्दर ढंग से व्यक्त हुआ है। वहाँ यह कहा गया है कि असंख्य जीवों के नियन्ता, जिनमें से कुछ बद्ध हैं और कुछ मुक्त हैं, एक परमपुरुष है जो परमात्मा है। उपनिषद् का श्लोक इस प्रकार है- नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम्। सारांश यह है कि बद्ध तथा मुक्त दोनों प्रकार के जीवों में से एक परम पुरुष भगवान् होता है, जो उन सबका पालन करता है और उन्हें कर्मों के अनुसार भोग की सुविधा प्रदान करता है। वह भगवान परमात्मा रूप में सबके हृदय में स्थित है। जो बुद्धिमान व्यक्ति उन्हें समझ सकता है, वही पूर्ण शान्ति-लाभ कर सकता है, अन्य कोई नहीं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उत्तमः= श्रेष्ठ; पुरुषः= व्यक्ति, पुरुष; तु= लेकिन; अन्यः= अन्य; परम= परम; आत्मा= आत्मा; इति= इस प्रकार; उदाहृतः= कहा जाता है; यः= जो; लोक= ब्रह्माण्ड के; त्रयम्= तीन विभागों में; आविश्य= प्रवेश करके; बिभिर्ति= पालन करता है; अव्ययः= अविनाशी; ईश्वरः= भगवान्।
  2. 2.2.13
  3. 6.13

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः