श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 717

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्रद्धा के विभाग
अध्याय 17 : श्लोक-18


सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत् ।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ॥18॥[1]

भावार्थ

जो तपस्या दंभपूर्वक तथा सम्मान, सत्कार एवं पूजा कराने के लिए सम्पन्न की जाती है, वह राजसी (रजोगुणी) कहलाती है। यह न तो स्थायी होती है न शाश्वत।

तात्पर्य

कभी-कभी तपस्या इसलिए की जाती है कि लोग आकर्षित हों तथा उनसे सत्कार, सम्मान तथा पूजा मिल सके। रजोगुणी लोग अपने अधीनस्थों से पूजा करवाते हैं और उनसे चरण धुलवाकर धन चढ़वाते हैं तपस्या करने के बहाने ऐसे कृत्रिम आयोजन राजसी माने जाते हैं। इनके फल क्षणिक होते हैं, वे कुछ समय तक रहते हैं। वे कभी स्थायी नहीं होते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सत्-कार= आदर; मान= सम्मान; पूजा= तथा पूजा; अर्थम्= के लिए; तपः= तपस्या; दम्भेन= घमंड से; च= भी; एव= निश्चय ही; यत्= जो; क्रियते= किया जाता है; तत्= वह; इह= इस संसार में; प्रोक्तम्= कहा जाता है; राजसम्= रजोगुणी; चलम्= चलायमान; अधु्रवम्= क्षणिक।

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