श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 249

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
अध्याय 5 : श्लोक-19

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः॥[1]

भावार्थ

जिनके मन एकत्व तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बन्धनों को पहले ही जीत लिया है। वे ब्रह्म के समान निर्दोष हैं और सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं।

तात्पर्य

जैसा कि ऊपर कहा गया है मानसिक समता आत्म-साक्षात्कार का लक्षण है। जिन्होंने ऐसी अवस्था प्राप्त कर ली है, उन्हें भौतिक बंधनों पर, विशेषतया जन्म तथा मृत्यु पर, विजय प्राप्त किए हुए मानना चाहिए। जब तक मनुष्य शरीर को आत्मस्वरूप मानता है, वह बद्धजीव माना जाता है, किन्तु ज्योंही वह आत्म-साक्षात्कार द्वारा समचित्तता की अवस्था को प्राप्त कर लेता है, वह बद्धजीवन से मुक्त हो जाता है। दूसरे शब्दों में, उसे इस भौतिक जगत में जन्म नहीं लेना पड़ता, अपितु अपनी मृत्यु के बाद वह आध्यात्मिक लोक को जाता है। भगवान निर्दोष हैं क्योंकि वे आसक्ति अथवा घृणा से रहित हैं। इसी प्रकार जब जीव आसक्ति अथवा घृणा से रहित होता है तो वह भी निर्दोष बन जाता है और वैकुण्ठ जाने का अधिकारी हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों को पहले से ही मुक्त मानना चाहिए। उनके लक्षण आगे बतलाये गये हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इह– इस जीवन में; एव– निश्चय ही; तैः– उनके द्वारा; जितः– जीता हुआ; सर्गः– जन्म तथा मृत्यु; येषम्– जिनका; साम्ये – समता में; स्थितम् – स्थित; मनः – मन; निर्दोषम् – दोषरहित; हि – निश्चय ही; समम् – समान; ब्रह्म – ब्रह्म की तरह; तस्मात् – अतः; ब्रह्मणि – परमेश्वर में; ते – वे; स्थिताः – स्थित हैं।

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