श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 103

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-52

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥[1]

भावार्थ

जब तुम्हारी बुद्धि मोह रूपी सघन वन को पार कर जायेगी तो तुम सुने हुए तथा सुनने योग्य सब के प्रति अन्यमनस्क हो जाओगे।

तात्पर्य

भगवद्भक्तों के जीवन में ऐसे अनेक उदाहरण प्राप्त हैं जिन्हें भगवद्भक्ति के कारण वैदिक कर्मकाण्ड से विरक्ति हो गई। जब मनुष्य[2] को तथा उनके साथ अपने सम्बन्ध को वास्तविक रूप में समझ लेता है तो वह सकाम कर्मों के अनुष्ठानों के प्रति पूर्णतया अन्यमनस्क हो जाता है, भले ही वह अनुभवी ब्राह्मण क्यों न हो। भक्त परम्परा में महान भक्त तथा आचार्य श्री माधवेन्द्रपुरी का कहना है–

सन्ध्यावन्दन भद्रमस्तु भवतो भोः स्नान तुभ्यं नमो।
भो देवाः पितरश्च तर्पणविधौ नाहं क्षमः क्षम्यताम्॥
यत्र क्कापि निषद्य यादव कुलो त्तमस्य कंस दविषः।
स्मारं स्मारमद्यं हरामि तदलं मन्ये किमन्येन मे॥

“हे मेरी त्रिकाल प्रार्थनाओ, तुम्हारी जय हो। हे स्नान, तुम्हें प्रणाम है। हे देवपितृगण, अब मैं आप लोगों के लिए तर्पण करने में असमर्थ हूँ। अब तो जहाँ भी बैठता हूँ, यादव कुलवंशी, कंस के हंता श्रीकृष्ण का ही स्मरण करता हूँ और इस तरह मैं अपने पापमय बन्धन से मुक्त हो सकता हूँ। मैं सोचता हूँ कि यही मेरे लिए पर्याप्त है।”

वैदिक रस्में तथा अनुष्ठान यथा त्रिकाल संध्या, प्रातःकालीन स्नान, पितृ-तर्पण आदि नवदीक्षितों के लिए अनिवार्य हैं। किन्तु जब कोई पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हो और कृष्ण की दिव्य प्रेमभक्ति में लगा हो, तो वह इन विधि-विधानों के प्रति उदासीन हो जाता है, क्योंकि उसे पहले ही सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है। यदि कोई परमेश्वर कृष्ण की सेवा करके ज्ञान को प्राप्त होता है, तो उसे शास्त्रों में वर्णित विभिन्न प्रकार की तपस्याएँ तथा यज्ञ करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। इसी प्रकार जो यह नहीं समझता कि वेदों का उद्देश्य कृष्ण तक पहुँचना है और अपने आपको अनुष्ठानादि में व्यस्त रखता है, वह केवल अपना समय नष्ट करता है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति शब्द-ब्रह्म की सीमा या वेदों तथा उपनिषदों की परिधि को भी लाँघ जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यदा – जब; ते – तुम्हारा; मोह – मोह के; कलिलम् – घने जंगल को; बुद्धिः – बुद्धिमय दिव्य सेवा; वयतितरिष्यति – पार कर जाति है; तदा – उस समय; गन्ता असि – तुम जाओगे; निर्वेदम् – विरक्ति को; श्रोतव्यस्य – सुनने योग्य के प्रति; श्रुतस्य – सुने हुए का; च – भी।
  2. कृष्ण

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