श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 151

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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कर्मयोग
अध्याय 3 : श्लोक-24

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः॥[1]

भावार्थ

यदि मैं नियतकर्म न करूँ तो ये सारे लोग नष्ट हो जायँ। तब मैं अवांछित जनसमुदाय (वर्णसंकर) को उत्पन्न करने का कारण हो जाऊँगा और इस तरह सम्पूर्ण प्राणियों की शान्ति का विनाशक बनूँगा।

तात्पर्य

वर्णसंकर अवांछित जनसमुदाय है जो सामान्य समाज की शान्ति को भंग करता है। इस सामाजिक अशान्ति को रोकने के लिए अनेक विधि-विधान हैं जिनके द्वारा स्वतः ही जनता आध्यात्मिक प्रगति के लिए शान्त तथा सुव्यवस्थित हो जाती है। जब भगवान् कृष्ण अवतरित होते हैं, तो स्वाभाविक है कि वे ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्यों की प्रतिष्ठा तथा अनिवार्यता बनाये रखने के लिए इन विधि-विधानों के अनुसार आचरण करते हैं। भगवान् समस्त जीवों के पिता हैं और यदि ये जीव पथभ्रष्ट हो जायँ तो अप्रत्यक्ष रूप में यह उत्तरदायित्व उन्हीं का है। अतः जब भी विधि-विधानों का अनादर होता है, तो भगवान स्वयं समाज को सुधारने के लिए अवतरित होते हैं। किन्तु हमें ध्यान देना होगा कि यद्यपि हमें भगवान् के पदचिह्नों का अनुसरण करना है, तो भी हम उनका अनुकरण नहीं कर सकते। अनुसरण और अनुकरण एक से नहीं होते। हम गोवर्धन पर्वत उठाकर भगवान का अनुकरण नहीं कर सकते, जैसा कि भगवान् ने अपने बाल्यकाल में लिया था। ऐसा कर पाना किसी मनुष्य के लिए सम्भव नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उत्सीदेयुः – नष्ट हो जायँ ; इमे – ये सब; लोकाः – लोक; न – नहीं; कुर्याम् – करूँ; कर्म – नियत कार्य; चेत् – यदि; अहम् – मैं; संकरस्य – अवांछित संतति का; च – तथा; करता – स्रष्टा; स्याम् – होऊँगा; उपन्याम् – विनष्ट करूँगा; इमाः – इन सब; प्रजाः – जीवों को।

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