श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 214

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दिव्य ज्ञान
अध्याय 4 : श्लोक-29

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगति रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।
अपने नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु जुह्वति॥[1]

भावार्थ

अन्य लोग भी हैं जो समाधि में रहने के लिए श्वास को रोके रहते हैं (प्राणायाम)। वे अपान में प्राण को और प्राण में अपान को रोकने का अभ्यास करते हैं और अन्त में प्राण-अपान को रोक कर समाधि में रहते हैं। अन्य योगी कम भोजन करके प्राण की प्राण में ही आहुति देते हैं।

तात्पर्य

श्वास को रोकने की योगविधि प्राणायाम कहलाती है। प्रारम्भ में हठयोग के विविध आसनों की सहायता से इसका अभ्यास किया जाता है। ये सारी विधियाँ इन्द्रियों को वश में करने तथा आत्म-साक्षात्कार की प्रगति के लिए संस्तुत की जाती हैं। इस विधि में शरीर के भीतर वायु को रोका जाता है जिससे वायु की दिशा उलट सके। अपान वायु निम्नगामी (अधोमुखी) है और प्राणवायु उर्ध्वगामी है। प्राणायाम में योगी विपरीत दिशा में श्वास लेने का तब तक अभ्यास करता है, जब तक दोनों वायु उदासीन होकर पूरक अर्थात सम नहीं हो जातीं। जब अपान वायु को प्राणवायु में अर्पित कर दिया जाता है तो इसे रेचक कहते हैं। जब प्राण तथा अपां वायुओं को पूर्णतया रोक दिया जाया है तो इसे कुम्भक योग कहते हैं। कुम्भक योगाभ्यास द्वारा मनुष्य आत्म-सिद्धि के लिए जीवन अवधि बढ़ा सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अपाने – निम्नगामी वायु में; जुह्वति – अर्पित करते हैं; प्राणम् – प्राण को; प्राणे – प्राण में; अपानम् – निम्नगामी वायु को; तथा – ऐसे ही; अपरे – अन्य; प्राण – प्राण का; अपान – निम्नगामी वायु; गती – गति को; रुद्ध्वा – रोककर; प्राण-आयाम – श्वास रोक कर समाधि में; परायणाः – प्रवृत्त; अपरे – अन्य; नियत – संयमित, अल्प; आहाराः – खाकर; प्राणान् – प्राणों को; प्राणेषु – प्राणों में; जुह्वति – हवन करते हैं, अर्पित करते हैं।

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