श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 819

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-76


राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम् ।
केशवार्जुनयो: पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहु: ॥76॥[1]

भावार्थ

हे राजन्! जब मैं कृष्ण तथा अर्जुन के मध्य हुई इस आश्चर्यजनक तथा पवित्र वार्ता का बारम्बार स्मरण करता हूँ, तो प्रति क्षण आह्लाद से गद्गद् हो उठता हूँ।

तात्पर्य

भगवद्गीता का ज्ञान इतना दिव्य है कि जो भी अर्जुन तथा कृष्ण के संवाद को जान लेता है, वह पुण्यात्मा बन जाता है और इस वार्तालाप को भूल नहीं सकता। आध्यात्मिक जीवन की यह दिव्य स्थिति है। दूसरे शब्दों में, जब कोई गीता को सही स्त्रोत से अर्थात प्रत्यक्षतः कृष्ण से सुनता है, तो उसे पूर्ण कृष्णभावनामृत प्राप्त होता है। कृष्णभावनामृत का फल यह होता है कि वह अत्यधिक प्रबुद्ध हो उठता है और जीवन का भोग आनन्द सहित कुछ काल तक नहीं, अपितु प्रत्येक क्षण करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. राजन्= हे राजा; संस्मृत्य= स्मरण करके; संस्मृत्य= स्मरण करके; संवादम्= वार्ता को; इमम्= इस; अद्भुतम्= आश्चर्यजनक; केशव= भगवान् कृष्ण; अर्जुनयोः= तथा अर्जुन की; पुण्यम्= पवित्र; हृष्यामि= हर्षित होता हूँ; च= भी; मुहुःमुहुः= बारम्बार।

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