श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 410

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-23


येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।[1]

भावार्थ

हे कुन्ती पुत्र! जो लोग अन्य देवताओं के भक्त हैं और उनकी श्रद्धा पूर्वक पूजा कटे हैं, वास्तव में वे भी मेरी पूजा करते हैं, किन्तु वे यह त्रुटिपूर्ण ढंग से करते हैं।

तात्पर्य

श्रीकृष्ण का कथन है “जो लोग अन्य देवताओं की पूजा में लगे होते हैं, वे अधिक बुद्धिमान नहीं होते, यद्यपि ऐसी पूजा अप्रत्यक्षतः मेरी पूजा है।” उदाहरणार्थ, जब कोई मनुष्य वृक्ष की जड़ों में पानी न डालकर उसकी पत्तियों तथा टहनियों में डालता है, तो वह ऐसा इसीलिए करता है क्योंकि उसे पर्याप्त ज्ञान नहीं होता या वह नियमों का ठीक से पालन नहीं करता। इसी प्रकार शरीर के विभिन्न अंगों की सेवा करने का अर्थ है आमाशय में भोजन की पूर्ति करना। इसी तरह विभिन्न देवता भगवान की सरकार के विभिन्न अधिकारी तथा निर्देशक हैं। मनुष्य को अधिकारियों या निर्देशकों द्वारा नहीं अपितु सरकार द्वारा निर्मित नियमों का पालन करना होता है। इसी प्रकार हर एक को परमेश्वर की ही पूजा करनी होती है। इससे भगवान के सारे अधिकारी तथा निर्देशक स्वतः प्रसन्न होंगे। अधिकारी तथा निर्देशक तो सरकार के प्रतिनिधि होते हैं, अतः इन्हें घूस देना अवैध है। यहाँ पर इसी को अविधिपूर्वकम् कहा गया है। दूसरे शब्दों में कृष्ण अन्य देवताओं की व्यर्थ पूजा का समर्थन नहीं करते।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ये–जो; अपि–भी; अन्य–दूसरे; देवता–देवताओं के; भक्ताः–भक्तगण; यजन्ते–पूजते हैं; श्रद्धया अन्विताः - श्रद्धापूर्वक; ते–वे; अपि–भी; माम्–मुझको; एव–केवल; कौन्तेय–हे कुन्तीपुत्र; यजन्ति–पूजा करते हैं; अविधि-पूर्वकम्–त्रुटिपूर्ण ढंग से।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः