श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 321

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवद्ज्ञान
अध्याय 7 : श्लोक-10

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्॥[1]

भावार्थ

हे पृथापुत्र! यह जान लो कि मैं ही समस्त जीवों का आदि बीज हूँ, बुद्धिमानों की बुद्धि तथा समस्त तेजस्वी पुरुषों का तेज हूँ।

तात्पर्य

कृष्ण समस्त पदार्थों के बीज हैं। कई प्रकार के चार तथा अचर जीव हैं। पक्षी, पशु, मनुष्य तथा अन्य सजीव प्राणी चर हैं, पेड़ पौधे अचर हैं– वे चल नहीं सकते, केवल खड़े रहते हैं। प्रत्येक जीव चौरासी लाख योनियों के अन्तर्गत है, जिनमे से कुछ चार हैं और कुछ अचर। किन्तु इस सबके जीवन के बीजस्वरूप श्रीकृष्ण हैं। जैसा कि वैदिक साहित्य में कहा गया है ब्रह्म या परमसत्य वह है जिससे प्रत्येक वस्तु उद्भुत है। कृष्ण परब्रह्म या परमात्मा हैं। ब्रह्म तो निर्विशेष है, किन्तु परब्रह्म साकार है। निर्विशेष ब्रह्म साकार रूप में आधारित है– यह भगवद्गीता में कहा गया है। अतः आदि रूप में कृष्ण समस्त वस्तुओं के उद्गम हैं। वे मूल हैं। जिस प्रकार मूल सारे वृक्ष का पालन करता है उसी प्रकार कृष्ण मूल होने के करण इस जगत् के समस्त प्राणियों का पालन करते हैं। इसकी पुष्टि वैदिक साहित्य में[2] हुई है–

नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम्
एको बहूनां यो विदधाति कमान्

वे समस्त नित्यों के नित्य हैं। वे समस्त जीवों के परम जीव हैं और वे ही समस्त जीवों का पालन करने वाले हैं। मनुष्य बुद्धि के बिना कुछ भी नहीं कर सकता और कृष्ण भी कहते हैं कि मैं समस्त बुद्धि का मूल हूँ। जब तक मनुष्य बुद्धिमान नहीं होता, वह भगवान् कृष्ण को नहीं समझ सकता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बीजम् – बीज; माम् – मुझको; सर्व-भूतानाम् - समस्त जीवों का; विद्धि – जानने का प्रयास करो; पार्थ – हे पृथापुत्र; सनातनम् – आदि, शाश्वत; बुद्धिः – बुद्धि; बुद्धि-मताम् – बुद्धिमानों की; अस्मि – हूँ; तेजः – तेज; तेजस्विनाम् – तेजस्वियों का; अहम् – मैं।
  2. कठोपनिषद 2.2.13

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