श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 452

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्री भगवान का ऐश्वर्य
अध्याय-10 : श्लोक-21


आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी।।[1]

भावार्थ

मैं आदित्यों में विष्णु, प्रकाशों में तेजस्वी सूर्य, मरुतों में मरीचि तथा नक्षत्रों में चन्द्रमा हूँ।

तात्पर्य

आदित्य बारह हैं, जिनमें कृष्ण प्रधान हैं। आकाश में टिमटिमाते ज्योतिपुंजों में सूर्य मुख्य है और ब्रह्मसंहिता में तो सूर्य को भगवान का तेजस्वी नेत्र कहा गया है। अन्तरिक्ष में पचास प्रकार के वायु प्रवहमान हैं, जिनमें से वायु अधिष्ठाता मरीचि कृष्ण का प्रतिनिधि है।

नक्षत्रों में रात्रि के समय चन्द्रमा सर्वप्रमुख है, अतः वह कृष्ण का प्रतिनिधि है। इस श्लोक से प्रतीत होता है कि चन्द्रमा एक नक्षत्र है, अतः आकाश में टिमटिमाने वाले तारे भी सूर्यप्रकाश को परिवर्तित करते हैं। वैदिक वाङ्मय में ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत अनेक सूर्यों के सिद्धान्त की स्वीकृति प्राप्त नहीं है। सूर्य एक है और सूर्य के प्रकाश से चन्द्रमा प्रकाशित है, तथा अन्य नक्षत्र भी। चूँकि भगवद्गीता से सूचित होता है कि चन्द्रमा नक्षत्र है, अतः टिमटिमाते तारे सूर्य न होकर चन्द्रमा के सदृश है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदित्यानाम्-आदित्यों में; अहम्-मैं हूँ; विष्णुः-परमेश्वर; ज्योतिषाम्-समस्त ज्योतियों में; रविः-सूर्य; अंशुमान्-किरणमाली, प्रकाशमान; मरीचिः-मरीचि; मरुताम्-मरुतों में; अस्मि-हूँ; नक्षत्राणाम्-तारों में; अहम्-मैं हूँ; शशि-चन्द्रमा।

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