श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 597

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-29


समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥29॥[1]

भावार्थ

जो व्यक्ति परमात्मा को सर्वत्र तथा प्रत्येक जीव में समान रूप से वर्तमान देखता है, वह अपने मन के द्वारा अपने आपको भ्रष्ट नहीं करता। इस प्रकार वह दिव्य गन्तव्य को प्राप्त करता है।

तात्पर्य

जीव, अपना भौतिक अस्तित्व स्वीकार करने के कारण, अपने आध्यात्मिक अस्तित्व से पृथक स्थित हो गया है। किन्तु यदि वह यह समझता है कि परमेश्वर अपने परमात्मा स्वरूप में सर्वत्र स्थित हैं, अर्थात यदि वह भगवान की उपस्थिति प्रत्येक वस्तु में देखता है, तो वह विघटनकारी मानसिकता से अपने आपको नीचे नहीं गिराता, और इसलिए वह क्रमशः वैकुण्ठ-लोक की ओर बढ़ता जाता है। सामान्यतया मन इन्द्रियतृप्तिकारी कार्यों में लीन रहता है, लेकिन जब वही मन परमात्मा की ओर उन्मुख होता है, तो मनुष्य आध्यात्मिक ज्ञान में आगे बढ़ जाता है।


Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. समम्= समान रूप से; पश्यन्= देखते हुए; हि= निश्चय ही; सर्वत्र= सभी जगह; समवस्थितम्= समान रूप से स्थित; ईश्वरम्= परमात्मा को; न= नहीं; हिनस्ति= नीचे गिराता है; आत्मना= मन से; आत्मानम्= आत्मा को; ततः= तब; याति= पहुँचता है; पराम्= दिव्य; गतिम्= गन्तव्य को।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः