श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 110

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-59

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परम दृष्ट्वा निवर्तते॥[1]

भावार्थ

देहधारी जीव इन्द्रियभोग से भले ही निवृत्त हो जाय पर उसमें इन्द्रियभोगों की इच्छा बनी रहती है। लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसे कार्यों को बंद करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है।

तात्पर्य

जब तक कोई अध्यात्म को प्राप्त न हो तब तक इन्द्रियभोग से विरत होना असम्भव है। विधि-विधानों द्वारा इन्द्रियभोग को संयमित करने की विधि वैसी ही है जैसे किसी रोगी के किसी भोज्य पदार्थ खाने पर प्रतिबन्ध लगाना। किन्तु इससे रोगी की न तो भोजन के प्रति रुचि समाप्त होती है और न वह ऐसा प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहता है। इसी प्रकार अल्पज्ञानी व्यक्तियों के लिए इन्द्रियसंयमन के लिए अष्टांग-योग जैसी विधि की संस्तुति की जताई है जिसमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि सम्मिलित हैं। किन्तु जिसने कृष्णभावनामृत के पथ पर प्रगति के क्रम में परमेश्वर कृष्ण के सौन्दर्य का रसास्वादन कर लिया है, उसे जड़ भौतिक वस्तुओं में कोई रुचि नहीं रह जाती। ऐसे प्रतिबन्ध तभी तक ठीक हैं, जब तक कृष्णभावनामृत में रुचि जागृत नहीं हो जाती। और जब वास्तव में रुचि जग जाती है, तो मनुष्य में स्वतः ऐसी वस्तुओं के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विषयाः – इन्द्रियभोग की वस्तुएँ; विनिवर्तन्ते – दूर रहने के लिए अभ्यास की जाति हैं; निराहारस्य– निषेधात्मक प्रतिबन्धों से; देहिनः – देहवान जीव के लिए; रस-वर्जम् – स्वाद का त्याग करता है; रसः – भोगेच्छा; अपि – यद्यपि है; अस्य – उसका; परम् – अत्यन्त उत्कृष्ट वस्तुएँ; दृष्ट्वा – अनुभव होने पर; निवर्तते – वह समाप्त हो जाता है।

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