श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 475

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-2


भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।
त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्मयमपि चाव्ययम्॥[1]

भावार्थ

हे कमलनयन ! मैंने आपसे प्रत्येक जीव की उत्पत्ति तथा लय के विषय में विस्तार आपकी अक्षय महिमा का अनुभव किया है।

तात्पर्य

अर्जुन यहाँ पर प्रसन्नता के मारे कृष्ण को कमलनयन[2] कहकर सम्बोधित करता है क्योंकि उन्होंने किसी पिछले अध्याय में उसे विश्वास दिलाया है- अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा- मैं इस सम्पूर्ण भौतिक जगत की उत्पत्ति तथा प्रलय का कारण हूँ। अर्जुन इसके विषय में भगवान से विस्तारपूर्वक सुन चूका है। अर्जुन को यह भी ज्ञात है कि समस्त उत्पत्ति तथा प्रलय का कारण होने के अतिरिक्त वे इन सबसे पृथक (असंग) रहते हैं। जैसा कि भगवान ने नवें अध्याय में कहा है कि वे सर्वव्यापी हैं, तो भी वे सर्वत्र स्वयं उपस्थित नहीं रहते। यही कृष्ण अचिन्त्य ऐश्वर्य है, जिसे अर्जुन स्वीकार करता है कि उसने भलीभाँति समझ लिया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भव-उत्पत्ति; अप्ययौ-लय (प्रलय); हि-निश्चय ही; भूतनाम-समस्त जीवों का; श्रुतौ-सुना गया है; विस्तरशः-विस्तारपूर्वक; मया-मेरे द्वारा; त्वत्तः-आपसे; कमल-पत्र-अक्ष-हे कमल नयन; माहात्म्यम्-महिमा; अपि-भी; च-तथा; अव्ययम्-अक्षय,अविनाशी।
  2. कृष्ण के नेत्र कमल के फूल की पंखड़ियों जैसे दीखते हैं

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