श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 558

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-3


जो क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ का अध्ययन भगवद्गीता के माध्यम से सूक्ष्मता से करता है, उसे यह ज्ञान प्राप्त हो सकता है। भगवान कहते हैं, ‘‘मैं प्रत्येक शरीर के कर्मक्षेत्र का ज्ञाता हूँ।’’ व्यक्ति भले ही अपने शरीर का ज्ञाता हो, किन्तु उसे अन्य शरीरों का ज्ञान नहीं होता। समस्त शरीरों में परमात्मा रूप में विद्यमान भगवान् समस्त शरीरों के विषय में जानते हैं। वे जीवन की विविध योनियों के सभी शरीरों को जानने वाले हैं। एक नागरिक अपने भूमि-खण्ड के विषय में सब कुछ जानता है, लेकिन राजा को न केवल अपने महल का, अपितु प्रत्येक नागरिक की भू-सम्पत्ति का, ज्ञान रहता है। इसी प्रकार कोई भले ही अपने शरीर का स्वामी हो, लेकिन परमेश्वर समस्त शरीरों के अधिपति हैं। राजा अपने साम्राज्य का मूल अधिपति होता है और नागरिक गौण अधिपति। इसी प्रकार परमेश्वर समस्त शरीरों के परम अधिपति हैं।

यह शरीर इन्द्रियों से युक्त है। परमेश्वर हृषीकेश हैं जिसका अर्थ है ‘‘इन्द्रियों के नियामक’’। वे इन्द्रियों के आदि नियामक हैं, जिस प्रकार राजा अपने राज्य की समस्त गतिविधियों का आदि नियामक होता है, नागरिक तो गौण नियामक होते हैं। भगवान् का कथन है, ‘‘मैं ज्ञाता भी हूँ।’’ इसका अर्थ है कि वे परम ज्ञाता हैं, जीवात्मा केवल अपने विशिष्ट शरीर को ही जानता है। वैदिक ग्रन्थों में इस प्रकार का वर्णन हुआ है-

क्षेत्राणि हि शरीराणि बीजं चापि शुभाशुभे।
तानि वेत्ति स योगात्मा तत: क्षेत्रज्ञ उच्यते॥

यह शरीर क्षेत्र कहलाता है, और इस शरीर के भीतर इसके स्वामी तथा साथ ही परमेश्वर का वास है, जो शरीर तथा शरीर के स्वामी दोनों को जानने वाला है। इसलिए उन्हें समस्त क्षेत्रों का ज्ञाता कहा जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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