श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-3
इस अध्याय में बताया जाएगा कि इन दोनों ज्ञाताओं में से एक अच्युत है, तो दूसरा च्युत। एक श्रेष्ठ है, तो दूसरा अधीन है। जो व्यक्ति, क्षेत्र के इन दोनों ज्ञाताओं को एक मान लेता है, वह भगवान के शब्दों का खण्डन करता है, क्योंकि उनका कथन है ‘‘मैं भी कर्मक्षेत्र का ज्ञाता हूँ’’। जो व्यक्ति रस्सी को सर्प जान लेता है वह ज्ञाता नहीं है। शरीर कई प्रकार के हैं और इनके स्वामी भी भिन्न-भिन्न हैं। चूँकि प्रत्येक जीव की अपनी निजी सत्ता है, जिससे वह प्रकृति पर प्रभुता की सामर्थ्य रखता है, अतएव शरीर विभिन्न होते हैं। लेकिन भगवान् उन सबमें परम नियन्ता के रूप में विद्यमान रहते हैं। यहाँ पर च शब्द महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह समस्त शरीरों का द्योतक है। यह श्रील बलदेव विद्याभूषण का मत है। आत्मा के अतिरिक्त प्रत्येक शरीर में कृष्ण परमात्मा के रूप में रहते हैं, और यहाँ पर कृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि परमात्मा के रूप में रहते हैं, और यहाँ पर कृष्ण स्पष्ट रूप से कहते है कि परमात्मा कर्मक्षेत्र तथा विशिष्ट भोक्ता दोनों का नियामक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्वेताश्वतर उपनिषद 1.12)
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