श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 559

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-3


कर्म क्षेत्र, कर्म के ज्ञाता तथा समस्त कर्मों के परम ज्ञाता का अन्तर आगे बतलाया जा रहा है। वैदिक ग्रन्थों में शरीर, आत्मा तथा परमात्मा के स्वरूप की सम्यक जानकारी ज्ञान नाम से अभिहित की जाती है। ऐसा कृष्ण का मत है। आत्मा तथा परमात्मा को एक मानते हुए भी पृथक्-पृथक् समझना ज्ञान है। जो कर्मक्षेत्र तथा कर्म के ज्ञाता को नहीं समझता, उसे पूर्ण ज्ञान नहीं होता। मनुष्य को प्रकृति, पुरुष (प्रकृति का भोक्ता) तथा ईश्वर (वह ज्ञाता जो प्रकृति एवं व्यष्टि आत्मा का नियामक है) की स्थिति समझनी होती है। उसे इन तीनों के विभिन्न रूपों में किसी प्रकार भ्रम पैदा नहीं करना चाहिए। मनुष्य को चित्रकार, चित्र तथा तूलिका में भ्रम नही करना चाहिये। यह भौतिक जगत्, जो कर्मक्षेत्र के रूप में है, प्रकृति है और इस प्रकृति का भोक्ता जीव है, और इन दोनों के ऊपर परम नियामक भगवान् हैं। वैदिक भाषा में इसे इस प्रकार कहा गया है-[1] भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा। सर्व प्रोक्तं त्रिविध ब्रह्ममेतत्। ब्रह्म के तीन स्वरूप हैं- प्रकृति कर्मक्षेत्र के रूप में ब्रह्म है, तथा जीव भी ब्रह्म है जो भौतिक प्रकृति को अपने नियन्त्रण में रखने का प्रयत्न करता है, और इन दोनों का नियामक भी ब्रह्म है। लेकिन वास्तविक नियामक वही है।

इस अध्याय में बताया जाएगा कि इन दोनों ज्ञाताओं में से एक अच्युत है, तो दूसरा च्युत। एक श्रेष्ठ है, तो दूसरा अधीन है। जो व्यक्ति, क्षेत्र के इन दोनों ज्ञाताओं को एक मान लेता है, वह भगवान के शब्दों का खण्डन करता है, क्योंकि उनका कथन है ‘‘मैं भी कर्मक्षेत्र का ज्ञाता हूँ’’। जो व्यक्ति रस्सी को सर्प जान लेता है वह ज्ञाता नहीं है। शरीर कई प्रकार के हैं और इनके स्वामी भी भिन्न-भिन्न हैं। चूँकि प्रत्येक जीव की अपनी निजी सत्ता है, जिससे वह प्रकृति पर प्रभुता की सामर्थ्‍य रखता है, अतएव शरीर विभिन्न होते हैं। लेकिन भगवान् उन सबमें परम नियन्ता के रूप में विद्यमान रहते हैं। यहाँ पर च शब्द महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह समस्त शरीरों का द्योतक है। यह श्रील बलदेव विद्याभूषण का मत है। आत्मा के अतिरिक्त प्रत्येक शरीर में कृष्ण परमात्मा के रूप में रहते हैं, और यहाँ पर कृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि परमात्मा के रूप में रहते हैं, और यहाँ पर कृष्ण स्पष्ट रूप से कहते है कि परमात्मा कर्मक्षेत्र तथा विशिष्ट भोक्ता दोनों का नियामक है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (श्वेताश्वतर उपनिषद 1.12)

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः