श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 199

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दिव्य ज्ञान
अध्याय 4 : श्लोक-14

स्वामी कभी भी कर्मचारियों का सा निम्नस्तरीय सुख नहीं चाहता। वह भौतिक क्रिया-प्रतिक्रिया से पृथक रहता है। उदाहरणार्थ, पृथ्वी पर उगने वाली विभिन्न वनस्पतियों के उगने के लिए वर्षा उत्तरदायी नहीं है, यद्यपि वर्षा के बिना वनस्पति नहीं उग सकती। वैदिक स्मृति से इस तथ्य की पुष्टि इस प्रकार होती है:

निमित्तमात्रवासौ सृज्यानां सर्गकर्मणि।
प्रधानकारणीभूता यतो वै सृज्य शक्तयः॥

“भौतिक सृष्टि के लिए भगवान् ही परम कारण हैं। प्रकृति तो केवल निमित्त कारण है, जिससे विराट जगत् दृष्टिगोचर होता है।” प्राणियों की अनेक जातियाँ होती हैं यथा देवता, मनुष्य तथा निम्नपशु और ये सब पूर्व शुभाशुभ कर्मों के फल भोगने को बाध्य हैं। भगवान उन्हें ऐसे कर्म करने के लिए समुचित सुविधाएँ तथा प्रकृति के गुणों के नियम सुलभ कराते हैं, किन्तु वे उनके किसी भूत तथा वर्तमान कर्मों के लिए उत्तरदायी नहीं होते। वेदान्तसूत्र में [1]पुष्टि हुई है कि वैषम्यनैर्घृण्य न सापेक्षत्वात– भगवान किसी भी जीव के प्रति पक्षपात नहीं करते। जीवात्मा अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी है। भगवान उसे प्रकृति अर्थात बहिरंगा शक्ति के माध्यम से केवल सुविधा प्रदान करने वाले हैं। जो व्यक्ति इस कर्म-नियम की सारी बारीकियों से भलीभाँति अवगत होता है, वह अपने कर्मों के फल से प्रभावित नहीं होता। दूसरे शब्दों में, जो व्यक्ति भगवान के इस दिव्य स्वभाव से परिचित होता है वह कृष्णभावनामृत में अनुभवी होता है। अतः उस पर कर्म के नियम लागू नहीं होते। जो व्यक्ति भगवान के दिव्य स्वभाव को नहीं जानता और सोचता है कि भगवान के कार्यकलाप सामान्य व्यक्तियों की तरह कर्मफल के लिए होते हैं, वे निश्चित रूप में कर्मफलों में बँध जाते हैं। किन्तु जो परम सत्य को जानता है, वह कृष्णभावनामृत में स्थिर मुक्त जीव है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2.1.34

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