श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 571

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-8-12


परिवार के सदस्य प्रतिदिन प्रातः तथा सांयकाल बैठ कर साथ-साथ हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करें। यदि कोई इन चारों सिद्धान्तों का पालन करते हुए अपने पारिवारिक जीवन को कृष्णभावनामृत विकसित करने में ढाल सके, तो पारिवारिक जीवन को त्याग कर विरक्त जीवन बिताने की आवश्यकता नहीं होगी। लेकिन यदि यह आध्यात्मिक प्रगति के लिए अनुकूल न रहे, तो पारिवारिक जीवन का परित्याग कर देना चाहिए। मनुष्य को चाहिए कि कृष्ण के साक्षात्कार करने या उनकी सेवा करने के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दे, जिस प्रकार से अर्जुन ने किया था। अर्जुन अपने परिजनों को मारना नहीं चाह रहा था, किन्तु जब वह समझ गया कि वे परिजन कृष्णसाक्षात्कार में बाधक हो रहे हैं, तो उसने कृष्ण के आदेश को स्वीकार किया। वह उनसे लड़ा और उसने उनको मार डाला। इन सब विषयों में मनुष्य को पारिवारिक जीवन के सुख-दुख से विरक्त रहना चाहिए, क्योंकि इस संसार में कोई कभी भी न तो पूर्ण सुखी रह सकता है, न दुखी।

सुख-दुख भौतिक जीवन को दूषित करने वाले हैं। मनुष्य को चाहिए कि इन्हें सहना सीखे, जैसा कि भगवद्गीता में उपदेश दिया गया है। कोई कभी भी सुख-दुख के आने-जाने पर प्रतिबन्ध नहीं लगा सकता, अतः मनुष्य को चाहिए कि भौतिकवादी जीवन शैली से अपने को विलग कर ले और दोनों ही दशाओं में समभाव बनाये रहे। सामान्यतया जब हमें इच्छित वस्तु मिल जाती है, तो हम अत्यन्त प्रसन्न होते हैं और जब अनिच्छित घटना घटती है, तो हम दुखी होते हैं। लेकिन यदि हम वास्तविक आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त हों, तो ये बातें हमें विचलित नहीं कर पाएँगी। इस स्थिति तक पहुँचने के लिए हमें अटूट भक्ति का अभ्यास करना होता है। विपथ हुए बिना कृष्णभक्ति का अर्थ होता है भक्ति की नव विधियाँ-कीर्तन, श्रवण, पूजन आदि में प्रवृत्त होना, जैसा नवें अध्याय के अन्तिम श्लोक में वर्णन हुआ है। इस विधि का अनुसरण करना चाहिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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