श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-8-12
सुख-दुख भौतिक जीवन को दूषित करने वाले हैं। मनुष्य को चाहिए कि इन्हें सहना सीखे, जैसा कि भगवद्गीता में उपदेश दिया गया है। कोई कभी भी सुख-दुख के आने-जाने पर प्रतिबन्ध नहीं लगा सकता, अतः मनुष्य को चाहिए कि भौतिकवादी जीवन शैली से अपने को विलग कर ले और दोनों ही दशाओं में समभाव बनाये रहे। सामान्यतया जब हमें इच्छित वस्तु मिल जाती है, तो हम अत्यन्त प्रसन्न होते हैं और जब अनिच्छित घटना घटती है, तो हम दुखी होते हैं। लेकिन यदि हम वास्तविक आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त हों, तो ये बातें हमें विचलित नहीं कर पाएँगी। इस स्थिति तक पहुँचने के लिए हमें अटूट भक्ति का अभ्यास करना होता है। विपथ हुए बिना कृष्णभक्ति का अर्थ होता है भक्ति की नव विधियाँ-कीर्तन, श्रवण, पूजन आदि में प्रवृत्त होना, जैसा नवें अध्याय के अन्तिम श्लोक में वर्णन हुआ है। इस विधि का अनुसरण करना चाहिए।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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