श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 570

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-8-12


मिथ्या अहंकार का अर्थ है, इस शरीर को आत्मा मानना। जब कोई यह जान जाता है कि वह शरीर नहीं, अपितु आत्मा है तो वह वास्तविक अहंकार को प्राप्त होता है। अहंकार तो रहता ही है। मिथ्या अहंकार की भर्त्सन्न की जाती है, वास्तविक अहंकार की नहीं। वैदिक साहित्य में[1] कहा गया है- अहं ब्रह्मास्मि- मैं ब्रह्म हूँ, मैं आत्मा हूँ। ‘‘मैं हूँ’’ ही आत्म भाव है, और यह आत्म-साक्षात्कार की मुक्त अवस्था में भी पाया जाता है। ‘‘मैं हूँ’’ का भाव ही अहंकार है लेकिन जब ‘‘मैं हूँ’’ भाव को मिथ्या शरीर के लिए प्रयुक्त किया जाता है, तो वह मिथ्या अहंकार होता है। जब इस आत्म भाव (स्वरूप) को वास्तविकता के लिए प्रयुक्त किया जात है, तो वह वास्तविक अहंकार त्यागना चाहिए। लेकिन हम अपने अहंकार को त्यागें कैसे? क्योंकि अहंकार का अर्थ है स्वरूप। लेकिन हमें मिथ्या देहात्मबुद्धि का त्याग करना ही होगा।

जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि को स्वीकार करने के कष्ट को समझना चाहिए। वैदिक ग्रन्थों में जन्म के अनेक वृत्तान्त हैं। श्रीमद्भागवत में जन्म से पूर्व की स्थिति, माता के गर्भ में बालक के निवास, उसके कष्ट आदि का सजीव वर्णन हुआ है। यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि जन्म बहुत कष्टपूर्ण है। चूँकि हम यह भूल जाते हैं, कि माता के गर्भ में हमें कितना कष्ट मिला है, अतएव हम जन्म तथा मृत्यु की पुनरावृत्ति का कोई हल नहीं निकाल पाते। इसी प्रकार मृत्यु के समय भी सभी प्रकार के कष्ट मिलते हैं, जिनका उल्लेख प्रामाणिक शास्त्रों में हुआ है। इनकी विवेचना की जानी चाहिए। जहाँ तक रोग तथा वृद्धावस्था का प्रश्न है, सबों को इनका व्यावहारिक अनुभव है। कोई भी रोगग्रस्त नहीं होना चाहता, कोई भी बूढ़ा नहीं होना चाहता, लेकिन इनसे बचा नहीं जा सकता। जब तक हम जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि के दुखों को देखते हुए इस भौतिक जीवन के प्रति निराशावादी दृष्टिकोण नहीं बना पाते, तब तक आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं रह जाता।

जहाँ तक संतान, पत्नी तथा घर के विरक्ति की बात है, इसका अर्थ यह नहीं कि इनके लिए कोई भावना ही न हो। ये सब स्नेह की प्राकृतिक वस्तुएँ हैं। लेकिन जब ये आध्यात्मिक उन्नति में अनुकूल न हों, तो इनके प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए। घर को सुखमय बनाने की सर्वोत्तम विधि कृष्णभावनामृत है। यदि कोई कृष्णभावनामृत से पूर्ण रहे, तो वह अपने घर को अत्यन्त सुखमय बना सकता है, क्योंकि कृष्णभावनामृत की विधि अत्यन्त सरल है। इसमें केवल हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे- का कीर्तन करना होता है, कृष्णार्पित भोग का उच्छिष्ट ग्रहण करना होता है, भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत जैसे ग्रन्थों पर विचार-विमर्श करना होता है, और अर्चाविग्रह की पूजा करनी होती है। इन चारों बातों से मनुष्य सुखी होगा। मनुष्य को चाहिए कि अपने परिवार के सदस्यों को ऐसी शिक्षा दे।


Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (बृहदारण्यक उपनिषद् 1.4.10)

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः