श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 192

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दिव्य ज्ञान
अध्याय 4 : श्लोक-10

कुछ लोग भौतिकता में इतने आसक्त रहते हैं कि वे आध्यात्मिक जीवन की ओर कोई ध्यान नहीं देते और कुछ लोग तो निराशावश सभी प्रकार के आध्यात्मिक चिन्तनों से क्रुद्ध होकर प्रत्येक वस्तु पर अविश्वास करने लगते हैं। इस अन्तिम कोटि के लोग किसी न किसी मादक वस्तु का सहारा लेते हैं और उनके मति-विभ्रम को कभी-कभी आध्यात्मिक दृष्टि मान लिया जाता है। मनुष्य को भौतिक जगत के प्रति आसक्ति की तीनों अवस्थाओं से छुटकारा पाना होता है– ये हैं आध्यात्मिक जीवन की अपेक्षा, आध्यात्मिक साकार रूप का भय तथा जीवन की हताशा से उत्पन्न शून्यवाद की कल्पना। जीवन की इन तीनों अवस्थाओं से छुटकारा पाने के लिए प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में भगवान की शरण ग्रहण करना और भक्तिमय जीवन के नियम तथा विधि-विधानों का पालन करना आवश्यक है। भक्तिमय जीवन की अन्तिम अवस्था भाव या दिव्य इश्वरीय प्रेम कहलाती है। भक्तिरसामृतसिन्धु [1] के अनुसार भक्ति का विज्ञान इस प्रकार है–

आदौ श्रद्धा ततः साधुसंगोऽथ भजनक्रिया
ततोऽनर्थनिवृत्तिः स्यात्ततो निष्ठा रुचिस्ततः।
अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाभ्यदञ्चति
साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भावे भवेत्क्रमः॥

“प्रारम्भ में आत्म-साक्षात्कार की समान्य इच्छा होनी चाहिए। इससे मनुष्य ऐसे व्यक्तियों की संगति करने का प्रयास करता है जो आध्यात्मिक दृष्टि से उठे हुए हैं। अगली अवस्था में गुरु से दीक्षित होकर नवदीक्षित भक्त उसके आदेशानुसार भक्तियोग प्रारम्भ करता है। इस प्रकार सद्गुरु के निर्देश में भक्ति करते हुए वह समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्त हो जाता है, उसके आत्म-साक्षात्कार में स्थिरता आती है और वह श्रीभगवान कृष्ण के विषय में श्रवण करने के लिए रुचि विकसित करता है। इस रुचि से आगे चलकर कृष्णभावनामृत में आसक्ति उत्पन्न होती है जो भाव में अथवा भगवत्प्रेम के प्रथम सोपान में परिपक्व होती है। ईश्वर के प्रति प्रेम ही जीवन की सार्थकता है।” प्रेम-अवस्था में भक्त भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर लीन रहता है। अतः भक्ति और समस्त की मन्द स्थिति से प्रामाणिक गुरु के निर्देश में सर्वोच्च अवस्था प्राप्त की जा सकती है और समस्त भौतिक आसक्ति, व्यक्तिगत आध्यात्मिक स्वरूप के भय तथा शून्यवाद से उत्पन्न हताशा से मुक्त हुआ जा सकता है। तभी मनुष्य को अन्त में भगवान के धाम की प्राप्ति ओ सकती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.4.15-16

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