श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 823

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-78


भगवद्गीता की अन्य विशेषता यह है कि वास्तविक सत्य भगवान कृष्ण हैं। परम सत्य की अनुभूति तीन रूपों में होती है- निर्गुण ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा भगवान श्रीकृष्ण। परम सत्य के पूर्ण ज्ञान का अर्थ है, कृष्ण का पूर्ण ज्ञान। यदि कोई कृष्ण को जान लेता है तो ज्ञान के सारे विभाग इसी ज्ञान के अंश हैं। कृष्ण दिव्य हैं क्योंकि वे अपनी नित्य अन्तरंगा शक्ति में स्थित रहते हैं। जीव उनकी शक्ति से प्रकट हैं और दो श्रेणी के होते हैं- नित्यबद्ध तथा नित्यमुक्त। ऐसे जीवों की संख्या असंख्य है और वे सब कृष्ण के मूल अंश माने जाते हैं। भौतिक शक्ति 24 प्रकार से प्रकट होती है। सृष्टि शाश्वत काल द्वारा प्रभावित है और बहिरंगाशक्ति द्वारा इसका सृजन तथा संहार होता है। यह दृश्य जगत पुनः पुनः प्रकट तथा अप्रकट होता रहता है।

भगवद्गीता में पाँच प्रमुख विषयों की व्याख्या की गई है- भगवान, भौतिक प्रकृति, जीव, शाश्वतकाल तथा सभी प्रकार के कर्म। सब कुछ भगवान कृष्ण पर आश्रित है। परम सत्य की सभी धारणाएँ- निराकार, ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा अन्य दिव्य अनुभूतियाँ- भगवान के ज्ञान की कोटि में सन्निहित हैं। यद्यपि ऊपर से भगवान, जीव, प्रकृति तथा काल भिन्न प्रतीत होते हैं, लेकिन ब्रह्म से कुछ भी भिन्न नहीं है। लेकिन ब्रह्म सदैव समस्त वस्तुओं में भिन्न है। भगवान चैतन्य का दर्शन है ‘‘अचिन्त्यभेदाभेद’’। यह दर्शन पद्धति परम सत्य के पूर्णज्ञान से युक्त है।

जीव अपने मूलरूप में शुद्ध आत्मा है। वह परमात्मा का एक परमाणु मात्र है। इस प्रकार भगवान कृष्ण की उपमा सूर्य से दी जा सकती है और जीवों की सूर्यप्रकाश से। चूँकि सारे जीव कृष्ण की तटस्था शक्ति हैं, अतएव उनका संसर्ग भौतिक शक्ति (अपरा) या आध्यात्मिक शक्ति (परा) से होता है। दूसरे शब्दों में, जीव भगवान की दो शक्तियाँ के मध्य में स्थित है और चूँकि उसका सम्बन्ध भगवान की पराशक्ति से है, अतएव उसमें किंचित् स्वतन्त्रता रहती है। इस स्वतन्त्रता के सदुपयोग से ही वह कृष्ण के प्रत्यक्ष आदेश के अन्तर्गत आता है। इस प्रकार वह ह्लादिनी शक्ति की अपनी सामान्य दशा को प्राप्त होता है।

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के अठारहवें अध्याय ‘‘उपसंहार-संन्यास की सिद्धि’’ का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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