श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 789

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-55


भक्त अपनी शुद्ध भक्ति के कारण परमेश्वर के दिव्य गुणों तथा ऐश्वर्य को यथार्थ रूप में जान सकता। जैसा कि ग्यारहवें अध्याय में कहा जा चुका है, केवल भक्ति द्वारा इसे समझा जा सकता है। इसी की पुष्टि यहाँ भी हुई है। मनुष्य भक्ति द्वारा भगवान को समझ सकता है और उनके धाम में प्रवेश कर सकता है।

भौतिक बुद्धि से मुक्ति की अवस्था-ब्रह्मभूत अवस्था-को प्राप्त कर लेने के बाद भगवान के विषय में श्रवण करने से भक्ति का शुभारम्भ होता है। जब कोई परमेश्वर के विषय में श्रवण करता है, तो स्वतः ब्रह्मभूत अवस्था का उदय होता है और भौतिक कल्मष-यथा लोभ तथा काम-का विलोप हो जाता है। ज्यों-ज्यों भक्त के हृदय से काम तथा इच्छाएँ विलुप्त होती जाती हैं, त्यों-त्यों वह भगवद्भक्ति के प्रति अधिक आसक्त होता जाता है और इस तरह वह भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है। जीवन की उस स्थिति में वह भगवान को समझ सकता है। श्रीमद्भागवत में भी इसका कथन हुआ है।

मुक्ति के बाद भक्तियोग चलता रहता है। इसकी पुष्टि वेदान्तसूत्र से[1] होती है- आप्रायणात् तत्रापि हि दृष्टम्। इसका अर्थ है कि मुक्ति के बाद भक्तियोग चलता रहता है। श्रीमद्भागवत में वास्तविक भक्तिमयी मुक्ति की जो परिभाषा दी गई है उसके अनुसार यह जीव का अपने स्वरूप या अपनी निजी स्वाभाविक स्थिति में पुनःप्रतिष्ठिापित हो जाना है। स्वाभाविक स्थिति की व्याख्या पहले ही की जा चुकी है- प्रत्येक जीव परमेश्वर का अंश है, अतएव उसकी स्वाभाविक स्थिति सेवा करने की है। मुक्ति के बाद यह सेवा कभी रुकती नहीं। वास्तविक मुक्ति तो देहात्मबुद्धि की भ्रान्त धारणा से मुक्त होना है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 4.1.12

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