श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 658

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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पुरुषोत्तम योग
अध्याय 15 : श्लोक-16

एकत्व का अर्थ यह नहीं है कि उनकी अपनी निजी सत्ता नहीं है, बल्कि यह कि दोनों में भिन्नता नहीं है। वे सब सृजन के प्रयोजन को मानते हैं। निस्सन्देह आध्यात्मिक जगत में सृजन जैसी कोई वस्तु नहीं है, लेकिन चूँकि, जैसा कि वेदान्तसूत्र में कहा गया है, भगवान समस्त उद्भवों के स्त्रोत हैं, अतएव यहाँ पर इस विचार धारा की व्याख्या की गई है। भगवान श्रीकृष्ण के कथानुसार जीवों की दो श्रेणियाँ हैं। वेदों में इसके प्रमाण मिलते हैं, अतएव इसमें सन्देह करने का प्रश्न ही नहीं उठता। इस संसार में संघर्ष-रत सारे जीव मन तथा पाँच इन्द्रियों से युक्त शरीर वाले हैं जो परिवर्तनशील हैं।

जब तक जीव बद्ध है, तब तक उसका शरीर पदार्थ के संसर्ग से बदलता रहता है। चूँकि पदार्थ बदलता रहता है, इसलिए जीव बदलते प्रतीत होते हैं। लेकिन आध्यात्मिक जगत में जीव छः परिवर्तनों से गुजरता है- जन्म, वृद्धि, अस्तित्व, प्रजनन, क्षय तथा विनाश। ये भौतिक शरीर के परिवर्तन हैं। लेकिन आध्यात्मिक जगत में शरीर-परिवर्तन नहीं होता, वहाँ न जरा है, न जन्म और न मृत्यु। वे सब एकावस्था में रहते हैं क्षरः सर्वाणि भूतानि-जो भी जीव, आदि जीव ब्रह्मा से लेकर क्षुद्र चींटी तक भौतिक प्रकृति के संसर्ग में आता है, वह अपना शरीर बदलता है। अतएव ये सब क्षर या च्युत हैं। किन्तु आध्यात्मिक जगत में वे मुक्त जीव सदा एकावस्था में रहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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