श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
पुरुषोत्तम योग
अध्याय 15 : श्लोक-6
इस सूचना से मनुष्य को मुग्ध हो जाना चाहिए। उसे उस शाश्वत जगत में ले जाये जाने की इच्छा करनी चाहिए और सच्चाई के इस मिथ्या प्रतिबिम्ब से अपने आप को विलग कर लेना चाहिए। जो इस संसार से अत्यधिक आसक्त है, उसके लिये इस आसक्ति का छेदन करना दुष्कर होता है। लेकिन यदि वह कृष्णभावनामृत्त को ग्रहण कर ले, तो उसके क्रमशः छूट जाने की सम्भावना है। उसे ऐसे भक्तों की संगति करनी चाहिए जो कृष्णभावना भावित होते हैं। उसे ऐसा समाज खोजना चाहिए, जो कृष्णभावनामृत के प्रति समर्पित हो और भक्ति करनी सीखनी चाहिए। इस प्रकार वह संसार के प्रति अपनी आसक्ति विच्छेद कर सकता है। यदि कोई चाहे कि केशरिया वस्त्र पहनने से भौतिक जगत के आकर्षण से विच्छेद हो जायेगा, तो ऐसा सम्भव नहीं हैं उसे भगवद्भक्ति के प्रति आसक्त होना पडे़गा। अतएव मनुष्य को चाहिए कि गम्भीरतापूर्वक समझे कि बारहवें अध्याय में भक्ति का जैसा वर्णन है वही वास्तविक वृक्ष की इस मिथ्या अभिव्यक्ति से बाहर निकलने का एक मात्र साधन है। चौदहवें अध्याय में बताया गया है कि भौतिक प्रकृति द्वारा विधियाँ दूषित हो जाती हैं, केवल भक्ति ही शुद्ध रूप से दिव्य है। यहाँ परमं मम शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में जगत का कौना-कौना भगवान की सम्पत्ति है, परन्तु दिव्य जगत परम है और छह ऐश्वर्यों से पूर्ण है। कठोपनिषद्[1] में भी इसकी पुष्टि की गई है कि दिव्य जगत में सूर्य प्रकाश, चन्द्रप्रकाश या तारा गण की कोई आवश्यकता नहीं है,[2] क्योंकि समस्त आध्यात्मिक आकाश भगवान की आन्तिरिक शक्ति से प्रकाशमान हैं। उस परमधाम तक केवल शरणागति से ही पहुँचा जा सकता है, अन्य किसी साधन से नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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