श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 563

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-5

इस प्रकार से ब्रह्म अनुभूति की पाँच अवस्थाएँ हैं, जिन्हें ब्रह्म पुंच्छ कहा कहा जाता है। इनमें से प्रथम तीन अन्नमय, प्राणमय, तथा ज्ञानमय- अवस्थाएँ जीवों के कार्यकलापों के क्षेत्रों से सम्बन्धित होती हैं। परमेश्वर इन कार्यकलापों के क्षेत्रों से परे है, और आनन्दमय है। वेदान्तसूत्र भी परमेश्वर को आनन्दमयोऽभ्यासात् कहकर पुकाराता है। भगवान स्वभाव से आनन्दमय हैं। अपने दिव्य आनन्द को भोगने के लिये वे विज्ञानमय, प्राणमय, ज्ञानमय, तथा अन्नमय रूपों में विस्तार करते हैं। कार्यकलापों के क्षेत्र में जीव भोक्ता (क्षेत्रज्ञ) माना जाता है, किन्तु आनन्दमय उससे भिन्न होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि जीव आनन्दमय का अनुगमन करने में सुख मानता है, तो वह पूर्ण बन जाता है। क्षेत्र के ज्ञाता (क्षेत्रज्ञ) रूप में परमेश्वर की और उसके अधीन ज्ञाता के रूप में जीव की तथा कार्यकलापों के क्षेत्र की प्रकृति का यह वास्तविक ज्ञान है। वेदान्तसूत्र या ब्रह्मसूत्र में इस सत्य की गवेषणा करनी होगी।

यहाँ इसका उल्लेख हुआ है कि ब्रह्मसूत्र के नीतिवचन कार्य-कारण के अनुसार सुन्दर रूप में व्यवस्थित हैं। इनमें से कुछ सूत्र इस प्रकार हैं- न वियदश्रुतेः[1]; नात्मा श्रुतेः[2] तथा परात्तु तच्छुतेः[3] प्रथम सूत्र कार्यकलापों के क्षेत्र को सूचित करता है, दूसरा जीव को और तीसरा परमेश्वर को, जो विभिन्न जीवों के आश्रयतत्त्व हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (2.3.2)
  2. (2.3.18)
  3. (2.3.40)

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