श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 444

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्री भगवान का ऐश्वर्य
अध्याय-10 : श्लोक-12-13

वेदों में परमेश्वर को पवित्र माना गया है। जो व्यक्ति कृष्ण को परम पवित्र मानता है, वह समस्त पापकर्मों से शुद्ध हो जाता है। भगवान की शरण में गये बिना पापकर्मों से शुद्धि नहीं हो पाती। अर्जुन द्वारा कृष्ण को परम पवित्र मानना वेदसम्मत है। इसकी पुष्टि नारद आदि ऋषियों द्वारा भी हुई है।

कृष्ण भगवान हैं और मनुष्य को चाहिए कि वह निरन्तर उनका ध्यान करते हुए उनसे दिव्य सम्बन्ध स्थापित करे। वे परम अस्तित्व हैं। वे समस्त शारीरिक आवश्यकताओं तथा जन्म-मरण से मुक्त हैं। इसकी पुष्टि अर्जुन ही नहीं, अपितु सारे वेद पुराण तथा इतिहास ग्रंथ करते हैं। सारे वैदिक साहित्य में कृष्ण का ऐसा वर्णन मिलता है और भगवान स्वयं चौथे अध्याय में कहते हैं, “यद्यपि मैं अजन्मा हूँ, किन्तु धर्म किस स्थापना के लिए इस पृथ्वी पर प्रकट होता हूँ।” वे परम पुरुष हैं, उनका कोई कारण नहीं है, क्योंकि वे समस्त कारणों के कारण हैं और सन कुछ उन्हीं से उदभूत है। ऐसा पूर्णज्ञान केवल भगवत्कृपा से प्राप्त होता है।

यहाँ पर अर्जुन कृष्ण की कृपा से ही अपने विचार व्यक्त करता है। यदि हम भगवद्गीता को समझना चाहते हैं तो हमें इन दोनों श्लोकों के कथनों को स्वीकार करना होगा। यह परम्परा-प्रणाली कहलाती है अर्थात गुरु-परम्परा को मानना। परम्परा-प्रणाली के बिना भगवद्गीता को नहीं समझा जा सकता। यह तथा कथित विद्यालयी शिक्षा द्वारा सम्भव नहीं है। दुर्भाग्यवश जिन्हें अपनी उच्च शिक्षा पर घमण्ड है, वे वैदिक साहित्य के इतने प्रमाणों के होते हुए ही अपने इस दुराग्रह पर अड़े रहते हैं कि कृष्ण एक सामान्य व्यक्ति है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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