श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 431

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्री भगवान का ऐश्वर्य
अध्याय-10 : श्लोक-4-5


दमः का अर्थ है कि इन्द्रियों को व्यर्थ के विषय भोग में न लगाया जाये। इन्द्रियों की समुचित आवश्यकताओं की पूर्ति का निषेध नहीं है, किन्तु अनावश्यक इन्द्रियभोग आध्यात्मिक उन्नति में बाधक है। फलतः इन्द्रियों के अनावश्यक उपयोग पर नियन्त्रण रखना चाहिए। इसी प्रकार मन पर भी अनावश्यक विचारों के विरुद्ध संयम रखना चाहिए। इसे शम कहते हैं। मनुष्य को चाहिए कि धन-अर्जन के चिन्तन में ही सारा समय न गँवाये। यह चिन्तन शक्ति का दुरुपयोग है। मन का उपयोग मनुष्यों की मूल आवश्यकताओं को समझने के लिए किया जाना चाहिए और उसे ही प्रमाणपूर्वक प्रस्तुत करना चाहिए। शास्त्रमर्मज्ञों, साधु पुरुषों, गुरुओं तथा महान विचारकों की संगति में रहकर विचार-शक्ति का विकास करना चाहिए। जिस प्रकार से कृष्णभावनामृत के अध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन में सुविधा ही वही सुखम है। इसी प्रकार दुःखम वह है जिससे कृष्णभावनामृत के अनुशीलन में असुविधा हो। जो कुछ कृष्णभावनामृत के विकास के अनुकूल हो, उसे स्वीकार करे और जो प्रतिकूल हो उसका परित्याग करे।

भव अर्थात जन्म का सम्बन्ध शरीर से है। जहाँ तक आत्मा का प्रश्न है, वह न तो उत्पन्न होता है न मरता है। इसकी व्याख्या हम भगवद्गीता के प्रारम्भ में ही कर चुके हैं। जन्म तथा मृत्यु का संबंध इस भौतिक जगत में शरीर धारण करने से है। भय तो भविष्य की चिन्ता से उदभूत है। कृष्णभावनामृत में रहने वाला व्यक्ति कभी भयभीत नहीं होता, क्योंकि वह अपने कर्मों के द्वारा भगवद्धाम को वापस जाने के प्रति आश्वस्त रहता है। फलस्वरूप उसका भविष्य उज्ज्वल होता है। किन्तु अन्य लोग अपने भविष्य के विषय में कुछ नहीं जानते, उन्हें इसका कोई ज्ञान नहीं होता कि अगले जीवन में क्या होगा। फलस्वरूप वे निरन्तर चिन्ताग्रस्त रहते हैं। यदि हम चिन्तामुक्त होना चाहते हैं, तो सर्वोत्तम उपाय यह है कि हम कृष्ण को जाने तथा कृष्णभावनामृत में निरन्तर स्थित रहें। इस प्रकार हम समस्त भय से मुक्त रहेंगे। श्रीमद्भागवत[1] में कहा गया है– भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यात्– भय तो हमारे मायापाश में फँस जाने से उत्पन्न होता है। किन्तु जो माया के जाल से मुक्त हैं, जो आश्वस्त हैं कि वे शरीर नहीं, अपितु भगवान के अध्यात्मिक अंश हैं और जो भगवद्भक्ति में लगे हुए हैं, उन्हें कोई भय नहीं रहता। उनका भविष्य अत्यन्त उज्ज्वल है। यह भय तो उन व्यक्तियों की अवस्था है जो कृष्णभावनामृत में नहीं हैं। अभयम तभी सम्भव है जब कृष्णभावनामृत में रहा जाए।

अहिंसा का अर्थ होता है कि अन्यों को कष्ट न पहुँचाया न जाय। जो भौतिक कार्य अनेकानेक राजनीतिज्ञों, समाजशास्त्रियों, परोपकारियों आदि द्वारा किये जाते है, उनके परिणाम अच्छे नहीं निकलते, क्योंकि राजनीतिज्ञों तथा परोपकारियों में में दिव्यदृष्टि नहीं होती, वे यह नही जानते कि वास्तव में मानव समाज के लिए क्या लाभप्रद है। अहिंसा का अर्थ हैं कि मनुष्य को इस प्रकार से प्रशिक्षित किया जाए कि इस मानवदेह का पूरा-पूरा उपयोग हो सके। मानवदेह आत्म-साक्षात्कार के हेतु मिली है। अत: ऐसी कोई संस्था या संघ जिससे उद्देश्य की पूर्ति में प्रोत्साहन न हो, मानवदेह के प्रति हिंसा करने वाला है। जिससे मनुष्यों के भावी आध्यात्मिक सुख में वृद्धि हो, वही अहिंसा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.2.37

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