श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 425

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-34


भगवद्गीता के सातवें तथा आठवें अध्यायों में भगवान की ऐसी शुद्ध भक्ति की व्याख्या की गई है, जो कल्पना, योग तथा सकाम कर्म से मुक्त है। जो पूर्णतया शुद्ध नहीं हो पाते वे भगवान के विभिन्न स्वरूपों द्वारा तथा निर्विशेषवादी ब्रह्मज्योति तथा अन्तर्यामी परमात्मा द्वारा आकृष्ट होते हैं, किन्तु शुद्ध भक्त तो परमेश्वर की साक्षात सेवा करता है। कृष्ण सम्बन्धी एक उत्तम पद्य में कहा गया है कि जो व्यक्ति देवताओं की पूजा में रत हैं, वे सर्वाधिक अज्ञानी हैं, उन्हें कभी भी कृष्ण का चरम वरदान प्राप्त नहीं हो सकता। हो सकता है कि प्रारम्भ में कोई भक्त अपने स्तर से नीचे गिर जाये, तो भी उसे अन्य सारे दार्शनिक तथा योगियों से श्रेष्ठ मानना चाहिए। जो व्यक्ति निरन्तर कृष्ण भक्ति में लगा रहता है, उसे पूर्ण साधु पुरुष समझना चाहिए। क्रमशः उसके आकस्मिक भक्ति-विहीन कार्य कम होते जाएँगे और उसे शीघ्र ही पूर्ण सिद्धि प्राप्त होगी। वास्तव में शुद्ध भक्त के पतन का कभी कोई अवसर नहीं आता, क्योंकि भगवान स्वयं ही अपने शुद्ध भक्तों की रक्षा करते हैं। अतः बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह सीधे कृष्णभावनामृत पथ का ग्रहण करे और संसार में सुख पूर्वक जीवन बिताए। अन्ततोगत्वा वह कृष्ण रूपी परम पुरस्कार प्राप्त करेगा।

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के नवें अध्याय “परम गुह्य ज्ञान” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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