श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 414

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-26


कृष्ण से प्रेम करने वाला उन्हें उनकी इच्छित वस्तु देगा और कोई ऐसी वस्तु भेंट नहीं करेगा जिसकी उन्हें इच्छा न हो, या उन्होंने न माँगी हो। इस प्रकार कृष्ण को मांस, मछली या अण्डे भेंट नहीं किये जाने चाहिए। यदि उन्हें इन वस्तुओं की इच्छा होती तो वे उनका उल्लेख करते। उल्टे वे स्पष्ट आदेश देते हैं कि उन्हें पत्र, पुष्प, जल तथा फल अर्पित किये जायें और वे इन्हें स्वीकार करेंगे। शाक, अन्न, फल, दूध तथा जल– ये ही मनुष्यों के उचित भोजन हैं और भगवान कृष्ण ने भी इन्हीं का आदेश दिया है। इनके अतिरिक्त हम जो भी खाते हों, वह उन्हें अर्पित नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे उसे ग्रहण नहीं करेंगे। यदि हम ऐसा भोजन उन्हें अर्पित करेंगे तो हम प्रेमा भक्ति नहीं कर सकेंगे।

तृतीय अध्याय के तेरहवें श्लोक में श्रीकृष्ण बताते हैं कि यज्ञ का उच्छिष्ट ही शुद्ध होता है, अतः जो लोग जीवन की प्रगति करने तथा भवबन्धन से मुक्त होने के इच्छुक हैं, उन्हें इसी को खाना चाहिए। उसी श्लोक मे वे यह भी बताते हैं कि जो लोग अपने भोजन को अर्पित नहीं करते वे पाप भक्षण करते हैं। दूसरे शब्दों में, उनका प्रत्येक कौर इस संसार की जटिलताओं में उन्हें बाँधने वाला है। अच्छा सरल शाकाहारी भोजन बनाकर उसे भगवान कृष्ण के चित्र या अर्चाविग्रह के समक्ष अर्पित करके तथा नतमस्तक होकर इस तुच्छ भेंट को स्वीकार करने की प्रार्थना करने से मनुष्य अपने जीवन में निरन्तर प्रगति करता है, उसका शरीर शुद्ध होता है और मस्तिष्क के श्रेष्ठ तन्तु उत्पन्न होते हैं, जिससे शुद्ध चिन्तन हो पाता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह समर्पण अत्यन्त प्रेमपूर्वक करना चाहिए। कृष्ण को किसी तरह के भोजन कि आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि उनके पास सब कुछ है, किन्तु यदि कोई उन्हें इस प्रकार प्रसन्न करना चाहता है, तो वे इस भेंट को स्वीकार करते हैं। भोजन बनाने, सेवा करने तथा भेंट करने में जो सबसे मुख्य बात रहती है, वह है कृष्ण के प्रेमवश कर्म करना।

वे मायावादी चिन्तक भगवद्गीता के इस श्लोक का अर्थ नहीं समझ सकेंगे, जो यः मानकर चलते हैं कि परब्रह्म इन्द्रियरहित है। उनके लिए यह या तो रूपक है या भगवद्गीता के उद्घोषक कृष्ण के मानवीय चरित्र का प्रमाण है। किन्तु वास्तविकता तो यह है कि कृष्ण इन्द्रियों से युक्त हैं और यह कहा गया है कि उनकी इन्द्रियाँ परस्पर परिवर्तनशील हैं। दूसरे शब्दों में, एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय का कार्य कर सकती है। कृष्ण को परम ब्रह्म कहने का आशय यही है। इन्द्रियरहित होने पर उन्हें समस्त ऐश्वर्यों से युक्त नहीं माना जा सकता। सातवें अध्याय मे कृष्ण ने बतलाया है कि वे प्रकृति के गर्भ मे जीवों को स्थापित करते हैं। इसे वे प्रकृति पर दृष्टिपात करके करते हैं। अतः यहाँ पर भी भक्तों द्वारा भोजन अर्पित करते हुए भक्तों को प्रेमपूर्ण शब्द सुनना कृष्ण के द्वारा भोजन करने तथा उसके स्वाद लेने के ही समरूप है। इस बात पर इसीलिए बल देना होगा क्योंकि अपनी सर्वोच्च स्थिति के कारण उनका सुनना उनके भोजन करने के ही समरूप है। केवल भक्त ही बिना तर्क के यह समझ सकता है कि परब्रह्म भोजन कर सकते हैं और उसका स्वाद ले सकते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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