गीता कर्म जिज्ञासा 11

संभव है कि आजकल के आधिभौतिक पंडित इन प्रायश्चितों को निरर्थक हौवा कहेंगे; परन्तु जिन्होंने ये प्रायश्चित कहे हैं और जिन लोगों के लिए ये कहे गए हैं, वे दोनों ऐसा नहीं समझते। वे तो उक्त सत्य–अपवाद को गौण ही मानते हैं। और इस विषय की कथाओं में भी यही अर्थ प्रतिपादित किया गया है। देखिए, युधिष्ठिर ने संकट के समय एक ही बार दबी हुई आवाज़ से 'नरो वा कुंजरो वा' कहा था। इसका फल यह हुआ कि उसका रथ, जो पहले ज़मीन से एक अंगुल ऊपर चलता था, अब और मामूली लोगों के रथों के समान धरती पर चलने लगा और अन्त में एक क्षण भर के लिए उसे नरकलोक में रहना पड़ा।[1] दूसरा उदाहरण अर्जुन का ही ले लीजिए। आश्वमेधिक पर्व[2] में लिखा है कि यद्यपि अर्जुन ने भीष्म का वध क्षात्रधर्म के अनुसार किया था, तथापि उसने शिखंडी के पीछे छिपकर यह काम किया था। इसीलिए उसको अपने पुत्र बभ्रुवाहन से पराजित होना पड़ा। इन सब बातों से यही प्रगट होता है कि विशेष प्रसंगों के लिए कहे गए उक्त अपवाद मुख्य या प्रमाण नहीं माने जा सकते। हमारे शास्त्रकारों का अंतिम और तात्विक सिद्धान्त वही है जो महादेव ने पार्वती से कहा हैः–

आत्महेतोः परार्थे वा नर्महास्याश्रयात्तथा।
ये मृषा न वदन्तीह ते नराः स्वर्गगामिनः॥

अर्थात;- 'जो लोग इस जगत में स्वार्थ के लिए, परार्थ के लिए या मजाक में भी कभी झूठ नहीं बोलते, इन्हीं को स्वर्ग की प्राप्ति होती है'।[3] अपनी प्रतिज्ञा या वचन को पूरा करना सत्य ही में शामिल है। भगवान श्रीकृष्ण और भीष्म पितामह कहते हैं, 'चाहे हिमालय पर्वत अपने स्थान से हट जाए, परन्तु हमारा वचन टल नहीं सकता'।[4] भृर्तहरि ने भी सत्पुरुषों का वर्णन इस प्रकार किया हैः–


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, द्रोण पर्व, 191.57, 58 तथा स्वर्गारोहण पर्व, 3.15
  2. महाभारत, आश्वमेधिक पर्व, 81.10
  3. महाभारत, अनुशासन पर्व, 144.19
  4. महाभारत, आदि पर्व 103 तथा उद्योग पर्व 81.48

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