गीता कर्म जिज्ञासा 23

अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुना न जातहार्देन न विद्विषादरः।

'जिस मनुष्य को अपमानित होने पर भी क्रोध नहीं आता उसकी मित्रता और द्वेष दोनों ही बराबर हैं।' क्षात्रधर्म के अनुसार देखा जाए तो विदुला ने यही कहा है किः–

एतावानेव पुरुषो यदमर्षी यदक्षमी।
क्षमावान्निरमर्षश्च नैव स्त्री न पुनः पुमान्॥

'जिस मनुष्य को (अन्याय पर) क्रोध आता है और जो (अपमान को) सह नहीं सकता, वही पुरुष कहलाता है। जिस मनुष्य में क्रोध या चिढ़ नहीं है वह नपुंसक ही के समान है।'[1] इस बात का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है कि इस जगत के व्यवहार के लिए न तो सदा तेज़ या क्रोध ही उपयोगी है और न ही क्षमा। यही बात लोभ के विषय में भी कही जा सकती है क्योंकि सन्न्यासी को भी मोक्ष की इच्छा होती ही है।

व्यास जी ने महाभारत में अनेक स्थानों पर भिन्न–भिन्न कथाओं के द्वारा यह प्रतिपादन किया है कि शूरता, धैर्य, दया, शील, मित्रता, समता आदि सब सद्गुण, अपने-अपने विरुद्ध गुणों के अतिरिक्त देशकाल आदि से मर्यादित हैं। यह नहीं समझना चाहिए कि कोई एक ही सद्गुण सभी समय शोभा देता है। भर्तृहरि का कथन हैः–


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, उद्योग पर्व, 132.33

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