गीता कर्म जिज्ञासा 19

न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः।
यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः॥

'सिर के बाल सफ़ेद हो जाने से ही कोई मनुष्य वृद्ध नहीं कहा जा सकता; देवगण उसी को वृद्ध कहते हैं जो तरुण होने पर भी ज्ञानवान हो'।[1] यह तत्त्व मनु जी और व्यास जी ही को नहीं, किंतु बुद्ध को भी मान्य था, क्योंकि मनुस्मृति के इस श्लोक का पहला चरण ‘धम्मपद’[2] नाम के प्रसिद्ध नीतिविषयक पाली भाषा के बौद्ध ग्रंथ में अक्षरशः आया है[3] और उसके आगे यह भी कहा है कि जो सिर्फ़ अवस्था ही से वृद्ध हो गया है, उसका जीना व्यर्थ है। यथार्थ में धर्मिष्ठ और वृद्ध होने के लिए सत्य, अहिंसा आदि की आवश्यकता है। ‘चुल्लवसा’ नामक दूसरे ग्रंथ[4] में स्वयं बुद्ध की यह आज्ञा है कि यद्यपि धर्म का निरूपण करने वाला भिक्षु नया हो, तथापि वह ऊँचे आसन पर बैठे और उन वयोवृद्ध भिक्षुओं को भी उपदेश करे जिन्होंने उसके पहले दीक्षा पाई हो।

यह कथा सब लोग जानते हैं कि प्रह्लाद ने अपने पिता हिरण्यकशिपु की अवज्ञा करके भगवत प्राप्ति कैसे कर ली थी। इससे यह जान पड़ता है कि जब कभी कभी पिता–पुत्र के सर्वमान्य नाते से भी कोई दूसरा अधिक बड़ा सम्बन्ध उपस्थित होता है, तब उतने समय के लिए निरूपार हो कर पिता–पुत्र का नाता भूल जाना पड़ता है। परन्तु ऐसे अवसर के न होते हुए भी, यदि कोई मुँह–जोड़ लड़का उक्त नीति का अवलंब करके, अपने पिता को गालियाँ देने लगे, तो वह केवल पशु के समान समझा जाएगा। पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा है कि गुरुर्गरीयान् पितृतो मातृतश्चेति मे मतिः– अर्थात; गुरु तो माता–पिता से भी अधिक श्रेष्ठ है। परन्तु महाभारत ही में यह भी लिखा है कि एक समय मरूत्त राजा के गुरु ने लोभवश होकर स्वार्थ के लिए उसका त्याग किया तब मरूत्त ने कहाः–



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनुस्मृति, 2.156 और महाभारत, 1.133.11; शल्यपर्व. 51.47
  2. ‘धम्मपद’ ग्रंथ का अंग्रेज़ी अनुवाद ‘प्राच्यधर्म–पुस्तकमाला’ (Sacred Books of the East Vol. X.) में किया गया है और चुल्लवग्ग का अनुवाद भी उसी माला के Vol. XVII और XX में प्रकाशित हुआ है। धम्मपद का पाली श्लोक यह हैः–

    न तेन थेरो होति येनस्स पलितं सिरो।
    परिपक्को वयो तस्स मोघजिण्णो ति वुच्चति॥

    ‘थेर’ शब्द बुद्ध भिक्षुओं के लिए प्रसुक्त हुआ है। यह संस्कृत शब्द ‘स्थविर’ का अपभ्रंश है।

  3. धम्मपद. 290
  4. चुल्लवसा, 6.13.1

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