गुरुरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः।
उत्पथप्रतिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम्॥
'यदि कोई गुरु इस बात का विचार न करे कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, और यदि वह अपने ही घमंड में रहकर टेढ़े रास्ते से चले, तो उसका शासन करना उचित है।' उक्त श्लोक महाभारत में चार स्थानों में पाया जाता है।[1] इनमें से पहले स्थान में वही पाठ है जो ऊपर दिया गया है; अन्य स्थानों में चौथे चरण के बदले 'दण्डो भवति शाश्वतः' अथवा 'परित्यागो विधीयते' यह पाठांतर भी है। परंतु वाल्मीकि-रामायण[2] में जहाँ यह श्लोक है; वहाँ ऐसा ही पाठ है जैसा ऊपर दिया गया है। इसलिए हमने इस ग्रंथ में उसी को स्वीकार किया है। उसी के आधार पर भीष्म पितामह ने परशुराम से और अर्जुन ने द्रोणाचार्य से युद्ध किया। और जब प्रह्लाद ने देखा कि अपने गुरु, जिन्हें हिरण्यकशिपु ने नियत किया है, भगवत्प्राप्ति के विरुद्ध उपदेश कर रहे हैं; तब उसने इसी तत्त्व के अनुसार उसका निषेध किया है। शांतिपर्व में स्वयं भीष्म पितामह श्रीकृष्ण से कहते हैं कि यद्यपि गुरु लोग पूजनीय हैं तथापि उनको भी नीति की मर्यादा का अवलंब करना चाहिए; नहीं तो–
समयत्यागिनो लुब्धान् गुरुनपि च केशव।
निहन्ति समरे पापान् क्षत्रियः स हि धर्मवित्॥
'हे केशव! जो गुरु मर्यादा, नीति अथवा शिष्टाचार का भंग करते हैं और जो लोभी या पापी हैं, उन्हें लड़ाई में मारने वाला क्षत्रिय ही धर्मज्ञ कहलाता है'।[3] इसी तरह तैत्तिरीयोपनिषद में भी प्रथम 'आचार्य देवो भव' कहकर उसी के आगे कहा है कि हमारे जो कर्म अच्छे हों, उन्हीं का अनुकरण करो, औरों का नहीं, – यान्यस्माकं सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि, नो इतराणि।[4] इससे उपनिषदों का यह सिद्धान्त प्रगट होता है कि यद्यपि पिता और आचार्य को देवता के समान मानना चाहिए, तथापि यदि वे शराब पीते हों तो पुत्र और छात्र को अपने पिता या आचार्य का अनुकरण नहीं करना चाहिए; क्योंकि नीति, मर्यादा और धर्म का अधिकार मां–बाप या गुरु से भी अधिक बलवान होता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत, आदि पर्व, 142.52, 53; उद्योग पर्व, 179.24; शान्ति पर्व, 57.7; 140.48
- ↑ रामायण, 2.21.13
- ↑ महाभारत, शान्ति पर्व, 55.19
- ↑ तैत्तिरीयोपनिषद. 1.11.2
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