गीता कर्म जिज्ञासा 12

तेजस्विनः सुखमसूनपि सत्यंजन्ति सत्यव्रतव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम्॥
अर्थात- 'तेजस्वी पुरुष आनन्द से अपनी जान भी देंगे, परन्तु वे अपनी प्रतिज्ञा का त्याग कभी नहीं करेंगे'।[1] इसी तरह श्री रामचंद्र जी के एक-पत्नीव्रत के साथ उनका एक बाण और एक वचन का व्रत भी प्रसिद्ध है। जैसा इस सुभाषित में कहा है,
द्विःशरं नाभिसंघत्ते रामो द्विर्नाभिभाषते

हरिश्चंद्र ने तो अपने स्वप्न में दिए हुए वचन को सत्य करने के लिए डोम की नीच सेवा भी की थी। इसके उल्टा, वेद में यह वर्णन है कि इन्द्र आदि देवताओं ने वृत्तासुर के साथ जो प्रतिज्ञाएँ की थीं, उन्हें मेट दिया और उसको मार डाला। ऐसी ही कथा पुराणों में हिरण्यकशिपु की है। व्यवहार में भी कुछ कौल–क़रार ऐसे होते हैं कि जो न्यायालय में बे–कायदा समझे जाते हैं या जिनके अनुसार चलना अनुचित माना जाता है। अर्जुन के विषय में ऐसी ही एक कथा महाभारत[2] में है। अर्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि जो कोई मुझसे कहेगा कि 'तू अपना गांडीव धनुष किसी दूसरे को दे दे! उसका सिर में तुरन्त ही काट डालूँगा।' इसके बाद युद्ध में जब युधिष्ठिर कर्ण से पराजित हुए तब उन्होंने निराश होकर अर्जुन से कहा, 'तेरा गांडीव हमारे किस काम का है? तू उसे छोड़ दे!' यह सुनकर अर्जुन हाथ में तलवार ले युधिष्ठिर को मारने दौड़ा। उस समय भगवान श्रीकृष्ण वहीं थे। उन्होंने तत्त्वज्ञान की दृष्टि से सत्य धर्म का मार्मिक विवेचन करके अर्जुन को यह उपदेश दिया कि, 'तू मूढ़ है, तुझे अब तक सूक्ष्म–धर्म मालूम नहीं हुआ है। तुझे वृद्ध जनों से इस विषय की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, न वृद्धाः सेवितास्त्वया– तूने वृद्ध जनों की सेवा नहीं की है। यदि तू प्रतिज्ञा की रक्षा करना ही चाहता है तो युधिष्ठिर की निर्भर्त्सना कर, क्योंकि सभ्य जनों की निर्भर्त्सना मृत्यु ही के समान है।'


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नीतिशतक, 110
  2. महाभारत, कर्ण पर्व, 69

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