गीता कर्म जिज्ञासा 21

मनु जी की निम्न आज्ञा का भी यही रहस्य है– 'धर्म की रक्षा करो; यदि कोई धर्म का नाश करेगा, अर्थात धर्म की आज्ञा के अनुसार आचरण नहीं करेगा, तो वह उस मनुष्य का नाश किए बिना नहीं रहेगा'।[1] राजा तो गुरु से भी अधिक श्रेष्ठ एक देवता है[2] परंतु वह भी इस धर्म से मुक्त नहीं हो सकता; यदि वह इस धर्म का त्याग कर देगा तो उसका नाश हो जाएगा; यह बात मनुस्मृति में कही गई है और महाभारत में वही भाव, वेन तथा खनीनेत्र राजाओं की कथा में व्यक्त किया गया है।[3]

अहिंसा, सत्य और अस्तेय के साथ इन्द्रिय–निग्रह की भी गणना सामान्य धर्म में की जाती है।[4] काम, क्रोध, लोभ आदि मनुष्य के शत्रु हैं, इसलिए जब तक मनुष्य इनको जीत नहीं लेगा, तब तक समाज का कल्याण नहीं होगा। यह उपदेश सब शास्त्रों में किया गया है। विदुरनीति और भगवद्गीता में भी कहा हैः–

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशकमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत्॥

'काम, क्रोध और लोभ ये तीनों ही नरक के द्वार हैं। इनसे हमारा नाश होता है, इसलिए इनका त्याग करना चाहिए'।[5] परन्तु गीता ही में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने स्वरूप का यह वर्णन किया है धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ– हे अर्जुन! प्राणीमात्र में जो ‘काम’ धर्म के अनुकूल है वही मैं हूँ।[6] इससे यह बात सिद्ध होती है कि जो 'काम’ धर्म के विरुद्ध है, वही नरक का द्वार है, उसके अतिरिक्त जो दूसरे प्रकार का 'काम' है अर्थात जो कि धर्म के अनुकूल है, वह ईश्वर को मान्य है।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनुस्मृति. 8.14–16
  2. मनुस्मृति, 7.8 और महाभारत, शांतिपर्व, 68.40
  3. मनुस्मृति, 7.41 और 8.128; महाभारत, शांतिपर्व, 59.92–100 तथा आश्वमेधिक पर्व, 4
  4. मनुस्मृति, 10.93
  5. गीता, 19.21; महाभारत, उद्योग पर्व, 32.70
  6. गीता. 7.11

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