गीता कर्म जिज्ञासा 13

इस प्रकार बोध करके उन्होंने अर्जुन को ज्येष्ठ भ्रातृवध के पाप से बचाया। इस समय भगवान श्रीकृष्ण ने जो सत्यानृत–विवेक अर्जुन को बताया है, उसी को आगे चलकर शांतिपर्व के सत्यानृत नामक अध्याय में भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा है।[1] यह उपदेश व्यवहार में लोगों के ध्यान में रहना चाहिए। इसमें संदेह नहीं है कि इन सूक्ष्म प्रसंगों को जानना बहुत ही कठिन काम है। देखिए, इस संसार में सत्य की अपेक्षा भ्रातृधर्म ही श्रेष्ठ माना जाता है; और गीता में यह निश्चित किया गया है कि बंधुप्रेम की अपेक्षा क्षात्रधर्म प्रबल है।

जब अहिंसा और सत्य के विषय में इतना वाद–विवाद है तब आश्चर्य की बात नहीं कि यही हाल नीतिधर्म के तीसरे तत्त्व, अर्थात अस्तेय का भी हो। यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि न्याय–पूर्वक प्राप्त की हुई किसी की सम्पत्ति को चुरा ले जाने या लूट लेने की स्वतंत्रता दूसरों को मिल जाए तो द्रव्य का संचय करना बंद हो जाएगा, समाज की रचना बिगड़ जाएगी, चारों तरफ अनवस्था हो जाएगी और सभी की हानि होगी। परन्तु इस समय के भी अपवाद हैं। जब दुर्भिक्ष के समय मोल लेने, मज़दूरी करने या भिक्षा मांगने से भी अनाज नहीं मिलता; तब ऐसी आपत्ति में यदि कोई मनुष्य चोरी करके आत्म–रक्षा करे, तो क्या वह पापी समझा जाएगा?

महाभारत[2] में यह कथा है कि किसी समय बारह वर्ष तक दुर्भिक्ष रहा और विश्वामित्र पर बहुत बड़ी आपत्ति आई। तब उन्होंने किसी श्वपच (चांडाल) के घर से कुत्ते का मांस चुराया और वे इस अभक्ष्य भोजन से अपनी रक्षा करने के लिए प्रवृत्त हुए। उस समय श्वपच ने विश्वामित्र को पंच पंचनखा भक्ष्याः[3] इत्यादि ‘शास्त्रार्थ बतला कर अभक्ष्य–भक्षण; और वह भी चोरी से न करने के विषय में बहुत उपदेय किया। परन्तु विश्वामित्र ने उसको डाँट कर यह उत्तर दियाः–


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, शांति पर्व. 109
  2. महाभारत, शांति पर्व, 141
  3. मनु और याज्ञवल्क्य ने कहा है कि कुत्ता, बंदर आदि जिन जानवरों के पाँच–पाँच बख होते हैं उन्हीं में से खरगोश, कछुआ, गोह आदि पाँच प्रकार के जानवरों का मांस भक्ष्य है, (मनुस्मृति. 5.18; याज्ञवल्क्यस्मृति, 1.177)। इन पाँच जानवरों के अतिरिक्त मनु जी ने 'खड्ग' अर्थात गेंड़े को भी भक्ष्य माना है। परन्तु टीकाकार का कथन है कि इस विषय में विकल्प है। इस विकल्प को छोड़ देने पर शेष पाँच ही जानवर रहते हैं और उन्हीं का मांस भक्ष्य समझा गया है। 'पंच पंचनखा भक्ष्याः' का यही अर्थ है; तथापि मीमांसकों के मतानुसार इस व्यवस्था का भावार्थ यही है कि जिन लोगों को मांस खाने की सम्मति दी गई है, वे उक्त पंचनखी पाँच जानवरों के सिवाय और किसी जानवर का मांस न खाएँ। इसका भावार्थ यह नहीं है कि इन जानवरों का मांस खाना ही चाहिए। इस पारिभाषिक अर्थ को वे लोग 'परिसंख्या' कहते हैं। 'पंच पंचनखा भक्ष्याः' इसी परिसंख्या का मुख्य उदाहरण है जबकि मांस खाना ही निषिद्ध माना गया है तब इन पाँच जानवरों का मांस खाना भी निषिद्ध ही समझा जाना चाहिए। मनुस्मृति. 5.18

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