गीता कर्म जिज्ञासा 4

न श्रेयः सततं तेजो न नित्यं श्रेयसी क्षमा।
तस्मान्नित्यं क्षमा तात पंडितैरपवादिता॥

अर्थात; 'सदैव क्षमा करना अथवा क्रोध करना श्रेयस्कर नहीं होता। इसी लिए हे तात! पंडितों ने क्षमा के लिए कुछ अपवाद भी कहे हैं।[1] इसके बाद कुछ मौकों का वर्णन किया गया है जो क्षमा के लिए उचित हैं; तथापि प्रह्लाद ने इस बात का उल्लेख नहीं किया कि इन मौकों का पहचानने का तत्त्व या नियम क्या है। यदि इन मौकों को पहचाने बिना, सिर्फ़ अपवादों का ही कोई उल्लेख करे तो वह दुराचरण समझा जाएगा। इसलिए यह जानना अत्यंत आवश्यक और अति महत्त्वपूर्ण है कि इन मौकों को पहचानने का नियम क्या है।
दूसरा तत्त्व 'सत्य' है, जो कि सब देशों और धर्मों में भली–भाँति माना जाता है और प्रमाण समझा जाता है। सत्य का वर्णन कहाँ तक किया जाए? वेद में सत्य की महिमा के विषय में यह कहा गया है कि सारी सृष्टि की उत्पत्ति के पहले 'ऋतं' और 'सत्य' उत्पन्न हुए; और सत्य ही से आकाश, पृथ्वी, वायु आदि पंच महाभूत स्थिर हैं – 'ऋतञ्च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत[2]', 'सत्येनोत्तभिता भूमिः।[3]' 'सत्य' शब्द का धात्वर्थ भी यही है – 'रहने वाला' अर्थात; 'जिसका कभी अभाव न हो' अथवा 'त्रिकाल अभादित'। इसी लिए सत्य के विषय में कहा गया है कि 'सत्य के सिवाय और कोई धर्म नहीं है, सत्य ही परब्रह्म है।' महाभारत में कई जगह इस वचन का उल्लेख किया गया है कि 'नास्ति सत्यात्परो धर्मः[4]' और यह भी लिखा है किः–


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, वनपर्व, 28.6, 8
  2. ऋग्वेद, 10.190.1
  3. ऋग्वेद, 10.85.1
  4. महाभारत, शान्तिपर्व, 162.24

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