गीता कर्म जिज्ञासा 5

अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम्।
अश्वमेधसहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते॥

अर्थात; 'हज़ार अश्वमेध और सत्य की तुलना की जाए तो सत्य ही अधिक होगा'।[1] यह वर्णन सामान्य सत्य के विषय में हुआ। सत्य के विषय में मनु जी एक विशेष बात और कहते हैं[2]:-

वाच्यर्था नियताः सर्वे वाङ्मूला वाग्विनिः सृताः।
तां तु यः स्तेनयेद्वाचं स सर्वस्तेयकृन्नरः॥

अर्थात; 'मनुष्यों के सब व्यवहार वाणी से हुआ करते हैं। एक के विचार दूसरे को बताने के लिए शब्द के समान अन्य कोई साधन नहीं है। वही सब व्यवहारों का आश्रय–स्थान और वाणी का मूल स्तोत्र है। जो मनुष्य उसको मलिन कर डालता है, अर्थात जो वाणी की प्रतारणा करता है, वह सब पूँजी ही की चोरी करता है।' इसी लिए मनु ने कहा है कि 'सत्यपूतां वदेद्वाचं[3]'– जो सत्य से पवित्र किया गया हो, वही बोला जाए। और अन्य धर्मों से सत्य ही को पहला स्थान देने के लिए उपनिषद में भी कहा है 'सत्यं वद। धर्म चर।[4]' जब बाणों की शैय्या पर पड़े–पड़े भीष्म पितामह शान्ति और अनुशासन पर्वों में, युधिष्ठिर को सब धर्मों के उपदेश दे चुके थे, तब प्राण छोड़ने के पहले 'सत्येषु यतितर्व्य वः सत्यं हि परमं बलं' इस वचन को सब धर्मों का सार समझ कर उन्होंने सत्य के ही अनुसार व्यवहार करने के लिए सब लोगों को उपदेश किया है।[5] बौद्ध और ईसाई धर्मों में भी इन्हीं नियमों का वर्णन पाया जाता है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, आदिपर्व' 74.102
  2. मनुस्मृति, 4.256
  3. मनुस्मृति, 6.46
  4. तैत्तिरीयोपनिषद, 1.11.1
  5. महाभारत, अनुशासनपर्व, 167.50

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