'संकट के समय धैर्य, अभ्युदय के समय (अर्थात जब शासन करने का सामर्थ्य हो तब) क्षमा, सभा में वक्तृता और युद्ध में शूरता शोभा देती है।'[1] शांति के समय ‘उत्तर’ के समान बक–बक करने वाले पुरुष कुछ कम नहीं हैं। घर बैठे–बैठे अपनी स्त्री की नथनी में से तीर चलाने वाले कर्मवीर बहुतेरे होंगे; उनमें से रणभूमि पर धनुर्धर कहलाने वाला एक–आध ही देख पड़ता है! धैर्य आदि सद्गुण ऊपर लिखे समय पर ही शोभा देते हैं। इतना ही नहीं; किन्तु ऐसे मौकों के बिना उनकी सच्ची परीक्षा भी नहीं होती। सुख के साथी तो बहुतेरे हुए करते हैं; परन्तु निकषग्रावा तु तेषां विपत् – विपत्ति ही उनकी परीक्षा की सच्ची कसौटी है। 'प्रसंग' शब्द ही में देशकाल के अतिरिक्त पात्र आदि बातों का भी समावेश हो जाता है।
समता से बढ़कर कोई भी गुण श्रेष्ठ नहीं है। भगवद्गीता में स्पष्ट रीति से लिखा है समः सर्वेषु भूतेषु – यही सिद्ध पुरुषों का लक्षण है। परन्तु समता कहते किसे हैं? यदि कोई मनुष्य योग्यता–अयोग्यता का विचार न करके सब लोगों का समान दान करने लगे तो क्या हम उसे अच्छा कहेंगे? इस प्रश्न का निर्णय भगवद्गीता में ही इस प्रकार किया गया है– देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं विदुः– देश, काल और पात्रता का विचार कर जो दान किया जाता है, वही सात्त्विक कहलाता है।[2] काल की मर्यादा सिर्फ़ वर्तमान काल के लिए ही नहीं होती। ज्यों–ज्यों समय बदलता जाता है, त्यों–त्यों व्यावहारिक धर्म में भी परिवर्तन होता जाता है। इसलिए जब प्राचीन समय की किसी बात की योग्यता या अयोग्यता का निर्णय करना हो, तब उस समय के धर्म–अधर्म संबंधी विश्वास का भी अवश्य विचार करना पड़ता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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