गीता कर्म जिज्ञासा 9

मिल के नीतिशास्त्र के ग्रंथ में भी इसी अपवाद का समावेश किया गया है।[1] इन अपवादों के अतिरिक्त सिजवकि अपने ग्रंथ में यह भी लिखता है कि 'यद्यपि कहा गया है कि सब लोगों को सच बोलना चाहिए, तथापि हम यह नहीं कह सकते कि जिन राजनीतिज्ञों को अपनी कार्यवाही गुप्त रखनी पड़ती है, वे औरों के साथ तथा व्यापारी अपने ग्राहकों से हमेशा सच ही बोला करें'।[2] किसी अन्य स्थान में वह लिखता है कि यही रियायत पादरियों और सिपाहियों को मिलती है। लेस्ली स्टीफ़न नाम का एक और अंग्रेज़ ग्रंथकार है। उसने नीतिशास्त्र का विवेचन आधिभौतिक दृष्टि से किया है। वह भी अपने ग्रंथ में ऐसे ही उदाहरण देकर अन्त में लिखता है कि, 'किसी कार्य के परिणाम की ओर ध्यान देने के बाद ही उसकी नीतिमत्ता निश्चित की जानी चाहिए। यदि मेरा यह विश्वास हो कि झूठ बोलने से ही कल्याण होगा, तो मैं सत्य बोलने के लिए कभी तैयार ही नहीं रहूंगा। मेरे यह विश्वास से यह भाव भी हो सकता है कि, इस समय झूठ बोलना ही मेरा कर्त्तव्य है'।[3] ग्रीन साहब ने नीतिशास्त्र का विचार आध्यात्मिक दृष्टि से किया है।

आप उक्त प्रसंगों का उल्लेख करके स्पष्ट रीति से कह सकते हैं कि ऐसे समय नीतिशास्त्र मनुष्य के संदेह की निवृत्ति कर नहीं सकता। अन्त में आपने यह सिद्धान्त लिखा है कि, 'नीतिशास्त्र यह नहीं कहता कि किसी साधारण नियम के अनुसार, सिर्फ़ यह समझकर कि वह नियम है, हमेशा चलने में कुछ विशेष महत्त्व है; किन्तु उसका कथन सिर्फ़ यही है कि सामान्यतः उस नियम के अनुसार चलना हमारे लिए श्रेयस्कर है। इसका कारण यह है कि ऐसे समय हम लोग केवल नीति के लिए अपनी लोभमूलक नीच मनोवृत्तियों को त्यागने की शिक्षा पाया करते हैं'।[4] नीतिशास्त्र पर ग्रंथ लिखने वाले बेन, बेबेल आदि अन्य अंग्रेज़ पंडितों का भी ऐसा ही मत है।[5]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. Mill’s Utilitarianism, Chap. II.pp.33-34 (15th Ed. Longmans 1907).
  2. Sidgwick’s Methods of Ethics, Book IV. Chap. III • 7.p.454(7th Ed.); and Book II. Chap. V. • 3p.169.
  3. Leslie Stephen’s Science of Ethics, Chap. IX • 29.p.369 (2nd Ed.). “And the certainty might be of such a kind as to make me think it a duty to lie.”
  4. Green’s Prolegomena to Ethics, • 315.p.379 (5th cheaper edition).
  5. Bain’s Mental and Moral Science, p.445 (Ed. 1875); and Whewell’s Elements of Morality, Book II. Chaps. XIII and XIV. (4th Ed. 1864).

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