गीता कर्म जिज्ञासा 8

ऐसी ही और अन्य बातों में भी यही नियम लगाया जाता है। हमारे शास्त्रों का यह कथन नहीं है कि झूठ बोलकर किसी ख़ूनी की जान बचायी जाए। शास्त्रों में ख़ून करने वाले आदमी के लिए देहान्त, प्रायश्चित अथवा वधदंड की सज़ा कही गई है, इसी लिए वह सज़ा पाने अथवा वध करने के योग्य है। सब शास्त्रकारों ने यही कहा है कि ऐसे समय अथवा इसी के समान और किसी समय, जो आदमी झूठी गवाही देता है वह अपने सात या और अधिक पूर्वजों सहित नरक में जाता है॥[1] परन्तु जब कर्णपर्व में वर्णित उक्त चोरों के दृष्टांत के समान, हमारे सच बोलने से निरपराधी आदमियों की जान जाने की आशंका हो तो उस समय क्या करना चाहिए? ग्रीन नामक एक अंग्रेज़ ग्रंथकार ने अपने 'नीतिशास्त्र का उपोद्घात' नामक ग्रंथ में लिखा है कि ऐसे मौकों पर नीतिशास्त्र मूक हो जाते हैं। यद्यपि, मनु और याज्ञवल्क्य ऐसे प्रसंगों की गणना सत्यापवाद में करते हैं, तथापि यह भी उसके मत में गौण बात है। इसी लिए अंत में उन्होंने इस अपवाद के लिए भी प्रायश्चित बतलाया है– 'तत्पावनाय निर्वाप्यश्चरूः सारस्वतो द्विजैः।[2]

कुछ बड़े अंग्रेज़ों ने जिन्हें अहिंसा के अपवाद के विषय में आश्चर्य नहीं मालूम होता, हमारे शास्त्रकारों को सत्य के विषय में दोष देने का यत्न किया है। इसीलिए यहाँ इस बात का उल्लेख किया जाता है कि सत्य के विषय में, प्रामाणिक ईसाई धर्मोपदेशक और नीतिशास्त्र के अंग्रेज़ ग्रंथकार क्या कहते हैं। क्राइस्ट का शिष्य पॉल बाइबिल में कहता है कि 'यदि मेरे असत्य भाषण से प्रभु के सत्य की महिमा और बढ़ती है (अर्थात; ईसाई धर्म का अधिक प्रचार होता है), तो इससे मैं पापी क्यों हो सकता हूँ'?[3] ईसाई धर्म के इतिहासकार मिलमैन ने लिखा है कि प्राचीन ईसाई धर्मोपदेशक कई बार इसी तरह आचरण किया करते थे। यह बात सच है कि वर्तमान समय के नीतिशास्त्रज्ञ, किसी को धोखा देकर या भुलाकर धर्म भ्रष्ट करके, न्याय नहीं मानेंगे। परन्तु वे भी यह कहने को तैयार नहीं हैं कि सत्य धर्म अपवाद–रहित है। उदाहरणार्थ; यह देखिए कि सिजविक नाम के जिस पंडित का नीतिशास्त्र हमारे कॉलेजों में पढ़ाया जाता है, उसकी क्या राय है। कर्म और अकर्म के संदेह का निर्णय, जिस तत्त्व के आधार पर, यह ग्रंथकार किया करता है, उसको 'सबसे अधिक लोगों का सबसे अधिक सुख' (बहुत लोगों का बहुत सुख) कहते हैं। इसी नियम के अनुसार यह निर्णय किया है कि छोटे लड़कों को और पागलों को उत्तर देने के समय, और इसी प्रकार बीमार आदमियों को (यदि सच बात सुना देने से उनके स्वास्थ्य के बिगड़ जाने का भय हो) अपने शत्रुओं को, चोरों को और (यदि बिना बोले काम न सिमटता हो तो) जो अन्याय से प्रश्न करें, उनको उत्तर देने के समय अथवा वकीलों को अपने व्यवसाय में झूठ बोलना अनुचित नहीं है।[4]



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनुस्मृति, 8.89–99; महाभारत, आदिपर्व, 7.3
  2. याज्ञवल्क्य स्मृति. 2.83; मनुस्मृति. 8.104–106
  3. रोम. 3.7
  4. Sidgwick’s Methods of Ethics, Book III. Chap. XI • 6.p.355 (7th Ed.). Also, see pp.315-317 (same Ed.).

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