गीता कर्म जिज्ञासा 3

मनु जी कहते हैं–

गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्॥

अर्थात्; 'ऐसे आततायी या दुष्ट मनुष्य को अवश्य मार डालें; किंतु यह विचार न करें कि वह गुरु है, बूढ़ा है, बालक है या विद्वान ब्राह्मण है।' शास्त्रकार कहते हैं कि[1] ऐसे समय हत्या करने का पाप हत्या करने वाले को नहीं लगता, किन्तु आततायी मनुष्य अपने अधर्म से ही मारा जाता है। आत्मरक्षा का यह हक कुछ मर्यादा के भीतर आधुनिक फ़ौजदारी क़ानून में भी स्वीकृत किया गया है। ऐसे मौकों पर अहिंसा से आत्मरक्षा की योग्यता अधिक मानी जाती है। भ्रूण हत्या सबसे अधिक निंदनीय मानी गयी है; परन्तु जब बच्चा पेट में टेढ़ा होकर अटक जाता है तब क्या उसको काटकर निकाल नहीं डालना चाहिए? यज्ञ में पशु का वध करना वेद ने भी प्रशस्त माना है[2]; परन्तु पिष्ट पशु के द्वारा वह भी टल सकता है[3]। तथापि हवा, पानी, फल इत्यादि सब स्थानों में जो सैकड़ो जीव–जन्तु हैं उनकी हत्या कैसे टाली जा सकती है? महाभारत[4] में अर्जुन कहते हैं–

सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित्।
पक्ष्मणोऽपि निपातेन येषां स्यात् स्कन्धपर्ययः॥

अर्थात; 'इस जगत में ऐसे–ऐसे सूक्ष्म जन्तु हैं कि जिनका अस्तित्व यद्यपि नेत्रों से देख नहीं पड़ता तथापि तर्क से सिद्ध है; ऐसे जन्तु इतने हैं कि यदि हम अपनी आँखों की पलक हिलाएं तो उतने से ही उन जन्तुओं का नाश हो जाता है।' ऐसी अवस्था में यदि हम मुख से कहते रहें कि 'हिंसा मत करो, हिंसा मत करो' तो उससे क्या लाभ होगा? इसी विचार के अनुसार अनुशासन पर्व में शिकार करने का समर्थन किया गया है। वनपर्व में एक कथा है कि कोई ब्राह्मण क्रोध से किसी पतिव्रता स्त्री को भस्म कर डालना चाहता था; परन्तु जब उसका प्रयत्न सफल नहीं हुआ तब वह उस स्त्री की शरण में गया। धर्म का सच्चा रहस्य समझ लेने के लिए उस ब्राह्मण को उस स्त्री ने उसे किसी व्याध के यहाँ भेज दिया। यहाँ व्याध मांस बेचा करता था; परन्तु था अपने माता–पिता का बड़ा पक्का भक्त। इस व्याध का यह व्यवसाय देखकर ब्राह्मण को अत्यंत विस्मय और खेद हुआ। तब व्याध ने उसे अहिंसा का सच्चा तत्त्व समझाकर बतला दिया। इस जगत में कौन किसको नहीं खाता? 'जीवो जीवस्य जीवनम्[5]'– यही नियम सर्वत्र देख पड़ता है। आपातकाल में तो 'प्राणस्यान्नमिदं सर्वम्' यह नियम सिर्फ़ स्मृतिकारों[6] ही ने नहीं कहा है; किन्तु उपनिषदों में भी स्पष्ट कहा है।[7] यदि सब लोग हिंसा छोड़ दें तो क्षात्र धर्म कहाँ और कैसे रहेगा? यदि क्षात्र धर्म नष्ट हो जाए तो प्रजा की रक्षा कैसे होगी? सारांश यह है कि नीति के सामान्य नियमों से ही सदा काम नहीं चलता; नीतिशास्त्र के प्रधान नियम– अहिंसा में भी कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य का सूक्ष्म विचार करना ही पड़ता है। अहिंसा धर्म के साथ क्षमा, दया, शान्ति आदि गुण शास्त्रों आदि में कहे गए हैं; परन्तु सब समय शान्ति से कैसे काम चल सकेगा? सदा शान्त रहने वाले मनुष्यों के बाल–बच्चों को भी दुष्ट लोग हरण किए बिना नहीं रहेंगे। इसी कारण का प्रथम उल्लेख करके प्रह्लाद ने अपने नाती, राजा बलि से कहा है–



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनुस्मृति 8.350
  2. मनुस्मृति 8.350, 5.31
  3. महाभारत, शान्तिपर्व, 337; अनुशासनपर्व, 115.59
  4. महाभारत, शान्तिपर्व, 15.29
  5. भागवत पुराण, 1.13.49
  6. मनुस्मृति, 5.28; महाभारत, शान्तिपर्व, 15.21
  7. वेदान्तसूत्र, 3.4.28; छान्दोग्य उपनिषद, 5.2.1; बृहदारण्यकोपनिषद, 9.1.14

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