गीता कर्म जिज्ञासा 6

क्या इस बात की कभी कल्पना की जा सकती है कि, जो सत्य इस प्रकार स्वयंसिद्ध और चिरस्थायी है, उसके लिए भी कुछ अपवाद होंगे? परन्तु दुष्टजनों से भरे हुए इस जगत का व्यवहार बहुत ही कठिन है। कल्पना कीजिए कि कुछ आदमी चोरों से पीछा किए जाने पर तुम्हारे सामने किसी स्थान में जा कर छिप रहे हैं। इसके बाद हाथ में तलवार लिए हुए चोर तुम्हारे पास आकर पूछने लगें कि वे आदमी कहाँ चले गए? ऐसी अवस्था में तुम क्या कहोगे? क्या तुम सच बोलकर सब हाल कह दोगे, या उन अपराधी मनुष्यों की रक्षा करोगे? शास्त्र के अनुसार निरपराधी जीवों की हिंसा को रोकना, सत्य ही के समान महत्त्व का धर्म है।

मनु कहते हैं 'नापृष्टः कस्यचिद्ब्रूयान्न चान्यायेन पृच्छतः[1]'– जब तक कोई प्रश्न न करे तब तक किसी से बोलना नहीं चाहिए। और यदि कोई अन्याय से प्रश्न करे, तो पूछने पर भी उत्तर नहीं देना चाहिए। यदि मालूम भी हो तो सिड़ी या पागल के समान हूँ–हूँ कर देना और बात को बना देना चाहिए– 'जानन्नपि हि मेधावी जडवल्लोक आचरेत्।' अच्छा, क्या हूँ–हूँ कर देना और बात बना देना एक तरह से असत्य भाषण करना नहीं है?

महाभारत[2] में कई स्थानों में कहा है 'न व्याजेन चरेद्धर्मं' धर्म से बहाना करके मन का समाधान नहीं कर लेना चाहिए; क्योंकि तुम धर्म को धोखा नहीं दे सकते, अपितु तुम खुद धोखा खा जाओगे। अच्छा, यदि हूँ–हूँ करके कुछ बात बना लेने का भी समय न हो, तो क्या करना चाहिए? मान लीजिए, कोई चोर हाथ में तलवार लेकर छाती पर आ बैठा है और पूछ रहा है कि तुम्हारा धन कहीँ है? यदि कुछ उत्तर न दोगे तो जान ही से हाथ धोना पड़ेगा। ऐसे समय पर क्या बोलना चाहिए?


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनुस्मृति, 2.110; महाभारत, शांन्तिपर्व, 287.34
  2. महाभारत, आदिपर्व, 215.34

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