गीता कर्म जिज्ञासा 16

एक समय की बात है कि इन्द्र, ब्राह्मण का रूप धारण करके दानशूर कर्ण के पास कवच और कुण्डल मांगने आए। कर्ण इन कवच–कुण्डलों को पहने हुए ही जन्मा था। जब सूर्य ने जाना कि इन्द्र कवच–कुण्डल मांगने जा रहा है, तब उसने पहले ही से कर्ण को सूचना दे दी थी कि तुम अपने कवच–कुण्डल किसी को दान मत देना। यह सूचना देते समय सूर्य ने कर्ण से कहा कि 'इसमें संदेह नहीं है कि तू बड़ा दानी है, परन्तु यदि तू अपने कवच–कुण्डल दान में दे देगा तो तेरे जीवन ही की हानि हो जाएगी। इसलिए तू इन्हें किसी को न देना। मर जाने पर कीर्ति का क्या उपयोग है?– मृतस्य कीर्त्या किं कार्यम्। यह सुनकर कर्ण ने स्पष्ट उत्तर दिया कि जीवितेनापि मे रक्ष्या कीर्तिस्तद्विद्धि मे व्रतम्– अर्थात; जान चली जाए तो भी कुछ परवाह नहीं। परन्तु अपनी कीर्ति की रक्षा करना ही मेरा व्रत है।[1] सारांश यह है कि 'यदि मर जाएगा तो स्वर्ग की प्राप्ति होगी और जीत जाएगा तो पृथ्वी का राज्य मिलेगा' इत्यादि क्षात्र–धर्म[2] और 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः'[3] यह सिद्धांत उक्त तत्त्व पर ही अवलंबित है। इसी तत्त्व के अनुसार श्री समर्थ रामदास स्वामी कहते हैं 'कीर्ति की ओर देखने से सुख नहीं है और सुख की ओर देखने से कीर्ति नहीं मिलती[4]; और वे उपदेश भी करते हैं कि 'हे सज्जन मन! ऐसा काम करो जिससे मरने पर कीर्ति बनी रहे।'

यहाँ प्रश्न हो सकता है कि यद्यपि परोपकार से कीर्ति होती है तथापि मृत्यु के बाद कीर्ति का क्या उपयोग है? अथवा किसी सभ्य मनुष्य को अपकीर्ति की अपेक्षा मर जाना[5]; या ज़िंदा रहने से परोपकार करना अधिक प्रिय क्यों होना चाहिए? इस प्रश्न का उचित उत्तर देने के लिए आत्म–अनात्म विचार में प्रवेश करना होगा। और इसी के साथ कर्म–अकर्म शास्त्र का भी विचार करके यह जान लेना होगा कि किस मौके पर जान देने के लिए तैयार होना उचित या अनुचित है। यदि इस बात का विचार नहीं किया जाएगा तो जान देने से यश की प्राप्ति तो दूर ही रही, परन्तु मूर्खता से आत्महत्या करने का पाप मत्थे चढ़ जाएगा।

माता, पिता, गुरु आदि वन्दनीय और पूजनीय पुरुषों की पूजा तथा शुश्रुषा करना भी सर्वमान्य धर्मों में से एक प्रधान धर्म समझा जाता है। यदि ऐसा न हो तो कुटुंब, गुरुकुल और सारे समाज की व्यवस्था ठीक–ठीक कभी रह न सकेगी। यही कारण है कि सिर्फ़ स्मृति–ग्रंथों ही में नहीं, किंतु उपनिषदों में भी 'सत्यं वद, धर्म चर’' कहा गया है। और जब शिष्य का अध्ययन पूरा हो जाता और वह अपने घर जाने लगता, तब प्रत्येक गुरु का यही गुरु का यही उपदेश होता था कि 'मातृ देवो भव पितृ देवो भव,आचार्य देवो भव'।[6] महाभारत के ब्राह्मण–व्याध आख्यान का तात्पर्य भी यही है।[7] परंतु इस धर्म में भी कभी–कभी अकल्पित बाधा खड़ी हो जाती है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, 1.299.38
  2. गीता, 2.37
  3. गीता, 3.35
  4. समर्थ रामदास कृत दासबोध, 12.10.19; 18.10.25
  5. गीता, 2.34
  6. तैत्तिरीयोपनिषद, 1.11.1 और 2
  7. महाभारत वनपर्व,. अध्याय 213

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