सब धर्मों का रहस्य जानने वाले भगवान श्रीकृष्ण ऐसे ही चोरों की कहानी का दृष्टांत देकर कर्णपर्व[1] में अर्जुन से और आगे शांतिपर्व के सत्यानृत अध्याय[2] में भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं–
अकूजनेन चेन्मोक्षो नावकूजेत्कथंचन।
अवश्यं कूजितव्ये वा शंकेरन्वाप्यकूजनात्।
श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुं सत्यादिति विचारितम्॥
अर्थात; 'यह बात विचारपूर्वक निश्चित की गई है कि यदि बिना बोले मोक्ष या छुटकारा हो सके, तो कुछ भी हो, बोलना नहीं चाहिए। और यदि बोलना आवश्यक हो अथवा न बोलने से (दूसरों को) कुछ संदेह होना संभव हो, तो उस समय सत्य के बदले असत्य बोलना ही अधिक प्रशस्त है।' इसका कारण यह है कि सत्यधर्म केवल शब्दोच्चार ही के लिए नहीं है, अतएव जिस आचरण से सब लोगों का कल्याण हो, वह आचरण सिर्फ़ इसी कारण से निंद्य नहीं माना जा सकता कि शब्दोच्चार अयतार्थ है। जिससे सभी की हानि हो, वह न तो सत्य ही है और न ही अहिंसा। शांतिपर्व[3] में सनत्कुमार के आधार पर नारद जी शुक जी से कहते हैं–
सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्।
यद्भूतहितमत्यन्तं एतत्सत्यं मतं मम॥
सच बोलना अच्छा है; परन्तु सत्य से भी अधिक ऐसा बोलना अच्छा है जिससे सभी प्राणियों का हित हो। क्योंकि जिससे सब प्राणियों का अत्यन्त हित होता है, वही हमारे मत से सत्य है।' 'यद्भूतहितं' पद को देखकर आधुनिक उपयोगिता–वादी अंग्रेज़ों का स्मरण करके यदि कोई उक्त वचन को प्रक्षिप्त कहना चाहे, तो उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि यह वचन महाभारत के वनपर्व में ब्राह्मण और व्याध के संवाद में दो–तीन बार आया है। उनमें से एक जगह तो 'अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतहितं परम पाठ है[4], और दूसरी जगह 'यद्भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमिति धारणा[5]', ऐसा पाठ भेद किया गया है। सत्यप्रतिज्ञ युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य से 'नरो वा कुंजरो वा' कहकर उन्हें संदेह में क्यों डाल दिया? इसका कारण वही है जो ऊपर कहा गया है, और कुछ नहीं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत, कर्णपर्व, 69.61
- ↑ महाभारत, शांतिपर्व, सत्यानृत अध्याय, 109.15, 16
- ↑ महाभारत, शांतिपर्व, 329.13; 287.19
- ↑ महाभारत, वनपर्व, 209.73
- ↑ महाभारत, वनपर्व, 208.4
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